इस बार मैं हाल में आई, कराची के आग़ा खान अस्पताल की ‘कम्युनिटी हेल्थ साइंसेज़’ की एक रिपोर्ट के बारे में आप से कुछ बातें करना चाहती हूं। यह रिपोर्ट सिटी यूनिवर्सिटी हांगकांग और इंग्लैंड की डीआईएफडी के वित्तीय सहयोग से तैयार की गई। इस रिचर्स के जरिए कम्युनिटी हेल्थ साइंसेज़ के लिए काम करने वाली लड़कियों की एक टीम ने कराची और सिंध के एक शहर ख़ैरपुर की 600 से ज्यादा औरतों से सवाल किए और उनके जवाबों के आधार पर इन ग़रीब और कच्ची बस्तियों में रहने वाली औरतों की हालत हमें बताई।
नतीजतन, औरतों की जो तस्वीर हमारे सामने आई वह बहुत दर्दनाक है। खैरपुर के रेढ़ी गोठ में जब औरतों से सशक्तीकरण और हिंसा के बारे में पूछा, तो उनका कहना था कि हम मानसिक तनाव में रहते हैं और इसकी वजह उन्होंने घरेलू परेशानियों, पाबंदियों और तरह-तरह की बीमारियों को बताया। उनका कहना था कि हम औरतों पर ज़ेहनी तनाव की वजह से कई असरात, जैसे घर से भाग जाना, ख़ुदकुशी करना, पति से झगड़ा-फ़साद, ख़ुद को जख्मी कर लेना जैसे हादसे होते रहते हैं।
घरेलू हिंसा के बारे में वे बताती हैं कि मारपीट, शारीरिक और मानसिक पीड़ा, ज़बानी और जिस्मानी तकलीफ़ देना आम बात है। रिपोर्ट काफ़ी लंबी है। इसमें कराची और खैरपुर की ग़रीब बस्तियों की सैकड़ों औरतों की ज़िंदगियों की झलकियां नज़र आती हैं।
इस रिपोर्ट में उन औरतों की कहानियां बयान की गई हैं, जिनमें से ज्यादातर अपनी मर्जी से कुछ भी नहीं कर सकतीं। बीमार हों, तो दवा लेने के लिए डॉक्टर के पास नहीं जा सकतीं। अपनी मर्ज़ी से कुछ नहीं ख़रीद सकती हैं। एक-एक पाई के लिए बाप, भाई या शौहर के सामने हाथ फैलाना पड़ता है। ये वे बेबस और कुचली हुई औरतें हैं, जो अपनी बेबसी और पिछड़ेपन की वजह जानती हैं और उस पर कुढ़ती रहती हैं।
कभी-कभी यह भी होता है कि बहुत ज्यादा कुढ़ने वाली ये औरतें किसी भी रास्ते अपनी जिंदगी ख़त्म कर लेती हैं और अपनों के सीने में कभी न भरने वाले ज़ख्म छोड़ जाती हैं। बेबस और लाचार औरतों के इस समंदर में, इन्ही बस्तियों में हमें वे औरतें भी नज़र आईं, जिन्होंने पढ़-लिख लिया है या कोई हुनर हासिल कर लिया है, वे पैसा कमाती हैं और अपने पैसे को अपनी मर्जी से खर्च करती हैं।
वे दस्तख़त कर सकती हैं, किसी पाबंदी के बग़ैर शहर या शहर से बाहर कहीं भी आ-जा सकती हैं। किसी भी मोहल्ले और इलाक़े में ऐसी आत्मनिर्भर और सशक्त, अलग से पहचाने जानी वाली औरतें भी पाई जाती हैं। मर्द और बूढ़ी औरतें ऐसी औरतों को नापसंद करते हैं। जो निशक्त औरतें हैं, वे इन सशक्त औरतों पर रश्क (ईष्र्या) करती हैं और इन्ही की तरह आत्मनिर्भर होना चाहती हैं।
इस रिपोर्ट को पढ़कर अंदाज़ा होता है कि ज्यादातर औरतें अपनी मर्जी से ख़ुद शादी करने या बेटियां ब्याहने और उन को पढ़ाने को आत्मनिर्भरता मानती हैं। कुछ तो यह कहती हैं कि शादी न करना ही औरत की ताक़त है। कुछ अपनी मां या अपने शौहर को अपनी ताक़त मानती हैं। उनका कहना है कि अगर हमारी मां या हमारे शौहर हमारे साथ हैं, तो कोई भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
वे अपनी मर्जी से अपने और अपने बच्चों के फ़ैसले ले सकती हैं। तक़रीबन सभी औरतों का यह कहना है कि सबसे बड़ी ताक़त रुपया है। बहुत सी लड़कियों को शिकायत है कि मांएं ख़ुद बेटी और बेटे के बीच फ़र्क़ करती हैं। बहुत सी औरतों ने ‘क़लम’ की ताक़त का समर्थन किया। उनका कहना था कि ‘क़लम’ से ग़लत बातों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई जा सकती है। उन्हें इस बात का एहसास है कि आज़ादी उनकी और उनके बच्चों की ज़िंदगी बदल सकती है। लेकिन उन्हें ऐसे सभी लोगों से शिकायत है, जो औरत को राजनीति में शरीक होने की इजाज़त नहीं देते।
उन्हें कहीं किसी जलसे में जाने की इजाजत नहीं है। कुछ इलाक़े के असरदार लोग यह फ़ैसला करते हैं कि औरतें वोट डालने नहीं जाएंगी। कहीं उनका पहचान पत्र नहीं बनवाने दिया जाता, क्योंकि ऐसे में उन्हें वोट डालने से रोकना मुश्किल होगा। ख़ैर, रिसर्च सिद्ध करती है कि हुकूमत कमज़ोर तबक़े की ज़रूरतों और उनके मौलिक अधिकारों की तरफ़ से ज़ालिमाना हद तक लापरवाह है। ख़ासतौर से औरतों के ज़़ख्मों पर मरहम रखा जा सकता है।
लेकिन हुकूमत को उनकी तकलीफ़ों का अंदाज़ा ही नहीं। अफ़सर उनसे झूठ वादे करते हैं। मुल्ला-मौलवी ‘अल्लाह की मर्जी’ कहकर दामन झाड़ लेते हैं। इस रिपोर्ट को घूम-घूम कर कर अंजाम देने वाली औरतों का यह कमाल है कि उन्होंने ग़रीब बस्तियों में अजनबी औरतों से इतने अपनेपन से बातें कीं, सवाल पूछे कि उन्होंने अपना दिल खोल कर उनके सामने रख दिया कि हम ऐसी दबी-कुचली औरतों के बारे में इतना कुछ जान पाए, जो स्कूल में क़दम रखने को अपना और अपनी बेटी का इतना ही बड़ा वाक़या समझती हैं, जितना नील आर्मस्ट्रांग चांद पर अपना पहला क़दम रखने को समझे थे।
औरतों के बग़ैर कुछ नहीं!
औरतों को एक तरफ़ कर राष्ट्र सफलता की ऊंचाइयां नहीं छू सकता। हम बुरे रिवाजों में फंसे हैं। क़ैदियों की तरह औरतों को चहारदीवारी में क़ैद रखना मानवता के ख़िलाफ़ जुर्म है।
-मोहम्मद अली जिन्ना-1944
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