एक सवाल सामान्य लोग आपस में किया करते हैं और वह यह है कि क्या साधु-संत बीमार नहीं पड़ते? यदि उन्हें भी वे सारी व्याधि सताती हैं, जो अन्य मनुष्यों को परेशान करती हैं तो फिर संत और सामान्य में भेद कैसा? आइए, आज साधु-संतों की बीमारी से परिचित हो लें।
शरीर उनके पास भी है, हमारे पास भी। फर्क यह है कि उनके लिए शरीर धर्मशाला की तरह है और हमने स्थायी मुकाम बना लिया है। इब्राहिम के जीवन की एक घटना है। उनकी कुटिया एक ऐसे मोड़ पर थी, जहां से बस्ती और मरघट दोनों के रास्ते निकलते थे। आने-जाने वाले राहगीर उनसे रास्ता पूछा करते थे। फकीरों की जुबां भी निराली लेकिन अर्थभरी होती है। वे लोगों को बस्ती किधर है, पूछने पर जिस रास्ते पर भेजते वह रास्ता मरघट का होता और मरघट जाने वालों को रिहायशी इलाके में रवाना कर देते। बाद में लोग आकर इनसे झगड़ते।
इब्राहिम का जवाब होता था कि मेरी नजर में मरघट एक ऐसी बस्ती है, जहां एक बार जो गया वह हमेशा के लिए बस गया। वहां कोई उजाड़ नहीं होता, लेकिन बस्ती वह जगह है जहां कोई बस नहीं सकता। जिसको हम रहने की जगह कहते हैं उसको फकीर श्मशान कहेंगे। इसीलिए शरीर के प्रति उनकी नजर अस्थाई निवास की तरह होती है। मैं शरीर नहीं हूं, यह भाव यहीं से जन्मता है। अत: जब बीमारी आती है तो संत, महात्मा, फकीर यह मानकर चलते हैं बीमारी का लेना-देना शरीर से है मुझसे नहीं और वह दूर खड़े होकर शरीर और बीमारी दोनों को देखते हैं। इसी साक्षी भाव में बड़े से बड़ा भाव छिपा है।
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