यदि सेकुलरिज्म की पहचान गुजरात के एक गैंगस्टर की तकदीर से हो तो यह बड़ा अजीब होगा। सोहराबुद्दीन शेख के मामले में न केवल उसका मजहब दांव पर लगा है, बल्कि कानून भी कसौटी पर है।
एक फर्जी एनकाउंटर में सोहराबुद्दीन की मौत और उसके बाद उसकी बीवी कौसर बी के कत्ल की जांच का जिम्मा सुप्रीम कोर्ट ने 13 जनवरी 2010 को सीबीआई को सौंपा था। गुजरात की सरकार ने अपनी विश्वसनीयता तभी खो दी थी, जब दिसंबर 2006 में उसने यह कबूला कि 26 नवंबर 2005 को सोहराबुद्दीन को जिस मुठभेड़ में मारा गया, वह फर्जी था और इसके दो दिन बाद उसकी बीवी का भी कत्ल कर दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट का जो रुख रहा है, वह न केवल गुजरात सरकार बल्कि किसी भी दफ्तरशाही को दहशत से भर देने के लिए काफी है। कोर्ट ने जोर देकर कहा कि कौन कसूरवार है और कौन बेकसूर, यह तय करना अदालत का काम है, पुलिस का नहीं। सच्चाई यह है कि कम से कम दो दशकों से और कुछ इलाकों में तो इससे भी लंबे समय से सुरक्षा बल फर्जी मुठभेड़ों का इस्तेमाल अपराध और आतंकवाद के विरुद्ध एक आसान हथियार की तरह करते आ रहे हैं। गुजरात में जो हुआ, वह नया नहीं था।
हम नहीं जानते कि अंडरवर्ल्ड की लगाम कसने के नाम पर मुंबई में कितने बेकसूर लोगों को मार दिया गया है। गोली चलाने में पीछे नहीं हटने वाले पुलिस अफसर बाद में सवालों का जवाब देने से तो मुकर गए, लेकिन उन्हें न केवल महाराष्ट्र सरकार बल्कि बॉलीवुड ने भी हीरो की तरह प्रचारित किया। बॉलीवुड ने इस कहानी में इसलिए दिलचस्पी ली, क्योंकि एनकाउंटर को कई नागरिकों का समर्थन हासिल है।
हम इसमें भरोसा ही नहीं करते कि जुर्म पर कानूनी तरीकों से भी काबू पाया जा सकता है, क्योंकि भ्रष्टाचार ने पुलिस और न्याय व्यवस्था के एक बड़े हिस्से को बेअसर बना डाला है। हम आम नागरिक भी इस गुनाह के हिस्सेदार हैं, क्योंकि हम ही वे लोग हैं, जो अंडरवर्ल्ड की चीजें खरीदते हैं। ड्रग्स और नारकोटिक्स लेने वाला मुंबई का हर शख्स भ्रष्टाचार के इस दलदल में धंसा है, क्योंकि इसके बिना अंडरवर्ल्ड का काम ही नहीं चल सकता।
तड़क भड़क वाली पार्टियों में हशीश के कश लगाने वाले अमीर मुंबईकरों को भी इस बारे में सोचने की जरूरत है। हम इतने खुदगर्ज हो गए हैं कि अपनी कमजोरियों को ढांपने के लिए तो हमें अपराध की जरूरत महसूस होती है, लेकिन अपराधी हमारी नजर में खटकते हैं और हम उन्हें रास्ते से हटा देना चाहते हैं।
अमित शाह कितने ही चतुर राजनेता क्यों न हों, लेकिन वे बचकर नहीं निकल सकते। भारत में इंसाफ की चक्की धीमे जरूर चलती है, लेकिन पीसती बारीक है। शाह यह कोशिश करेंगे कि वे जनमानस में पैठे विरोधाभासों का फायदा उठाएं, क्योंकि फर्जी मुठभेड़ों का समर्थन करने वाले कई होंगे। लेकिन कारोबारियों से पैसा लेने के आरोपों से भी शाह के दामन पर कालिख लगी है। शाह और नरेंद्र मोदी को जल्द ही पता चल जाएगा कि सत्ता की सरहदें सियासत से बड़ी होती हैं।
लेकिन इतना तो तय है कि विश्वसनीयता को केवल एक मामले और एक राज्य तक सीमित नहीं किया जा सकता। आखिर राजकुमार चेरुकुरी आजाद की मौत के लिए कौन जवाबदेह है? इस 55 वर्षीय नक्सली नेता को आंध्रप्रदेश पुलिस ने आदिलाबाद जिले में गोली से उड़ा दिया था। यह ‘मुठभेड़’ थी या ‘फर्जी मुठभेड़’? क्या पुलिस के पास किसी नक्सली हमले का सबूत था, जो वह बदले में जवाबी कार्रवाई कर रही थी? या उन्हें दिल्ली या आंध्रप्रदेश से आजाद का कत्ल करने का हुक्म मिला था?
आजाद की मौत के पीछे एक राजनीतिक पहलू यह है कि वह सरकार और नक्सलियों के बीच समझौता वार्ताओं के लिए पुल का काम कर सकता था। क्या दिल्ली उसे इसलिए रास्ते से हटाना चाहती थी क्योंकि समझौता वार्ता के प्रस्तावों को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा था? स्वामी अग्निवेश जैसे मध्यस्थ तो यही सुझाते हैं। क्या अब समय आ गया है कि स्वामी अग्निवेश आंध्र पुलिस को हत्या में शरीक ठहराते हुए सुप्रीम कोर्ट में रिट पिटीशन दायर करें?
सवाल यह है कि सरकार का दुश्मन कौन है? कसाब और उस जैसे हजारों अन्य घुसपैठी आतंकियों के मामले में तो भ्रम की कोई स्थिति नहीं रहती। लेकिन जब श्रेणियां बदल जाती हैं तो तस्वीर धुंधला जाती है। अदालत का यह कथन साहसभरा है कि सोहराबुद्दीन जैसा हत्यारा किसी खूनी दस्ते का सामना नहीं कर सकता। तो क्या कोर्ट का मंतव्य यह है कि आजाद को बिना मुकदमा चलाए मार दिया जाना चाहिए था, क्योंकि आंध्रप्रदेश और दिल्ली में बैठे हुक्मरानों ने यह तय किया था?
सुप्रीम कोर्ट कोई राजनीतिक दल नहीं है। वह व्यावहारिक जरूरतों के लिए अपने उसूलों में रद्दोबदल नहीं कर सकती।
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