Sunday, January 30, 2011

पंजाब में तीन सौ करोड़ का गड़बड़झाला



 
 
 
 
 
चंडीगढ़. सिंगल गैस कनेक्शन के नाम पर मिलने वाला केरोसिन खुले बाजार में बेचकर डिपो होल्डर हर माह करोड़ों रुपए का घपला कर रहे हैं।

वैसे विभागीय अधिकारियों की मानें तो सिंगल गैस कनेक्शन के नाम पर तीन सौ करोड़ रुपए का हर साल घोटाला होता है। राज्य में जिन लोगों के पास गैस के दो सिलेंडर हैं उन्हें मिट्टी का तेल नहीं मिलता है, जबकि जिनके पास एक सिलेंडर है उन्हें तीन लीटर और जिनके पास नहीं हैं उन्हें पांच लीटर मिट्टी का तेल मिलता है।

चूंकि वर्षो पहले बने राशन कार्ड की किसी ने जांच नहीं की, इसलिए जिन्होंने गैस कनेक्शन ले लिए हैं, उनमें से ज्यादातर के राशन कार्ड में तो यह दर्ज कर के उनका केरोसिन कोटा बंद कर दिया गया है, लेकिन इसकी पूरी जानकारी विभाग को नहीं दी गई है। माना जाता है कि इसमें विभागीय अधिकारियों की भी मिलीभगत है, क्योंकि जिन राशन कार्ड धारकों को गैस कनेक्शन मिल गए हैं, उनके हिस्से का बचता केरोसीन खुले बाजार में 25 रुपए तक बिक रहा है, जबकि राशन कार्ड पर लेने पर इसकी कीमत 12 रुपए प्रति लीटर है।

पूरी कर ली है जांच : कैरों

मंत्री आदेश प्रताप सिंह कैरों का दावा है कि सभी राशन कार्ड धारकों की जांच पूरी कर ली है। अब केरोसिन केवल बीपीएल, नीला और लाल कार्ड धारकों को देने का प्रोग्राम शुरू किया है। राशन कार्ड और गैस कनेक्शन जैसी सुविधाओं को लेने के लिए यूआईडी लेना अनिवार्य किया जा रहा है।

किसी के पास जवाब नहीं

पंजाब में 25 लाख परिवारों को केरोसिन मिल रहा है, लेकिन राज्य में मात्र 4.50 लाख परिवार ही गरीबी रेखा के नीचे हैं। नीले कार्ड और दंगा पीड़ितों के कार्डो की संख्या 15.56 लाख से अधिक नहीं है। शेष परिवारों का केरोसिन कहां जा रहा है? इसका जवाब कोई भी विभागीय अधिकारी देने को तैयार नहीं है

Friday, January 7, 2011

दूरसंचार मंत्रालय को दूरसंचार घोटाले की जानकारी नहीं!
 

नई दिल्ली।
दूरसंचार मंत्रालय जो घोटाले का 2010 का प्रमुख अड्डा बना रहा कहता है कि उसे घोटाले की कोई जानकारी नहीं है। जी हां यह लिखित जवाब दिया है दूरसंचार मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने। जिस दूरसंचार घोटाले ने बड़े-बड़ों को नंगा कर दिया, जिसकी वजह से ए .राजा की कुर्सी चली गयी उसी विभाग और मंत्रालय के अधिकारी ने कहा है कि उसके पास घोटाले से जुड़ी जानकारी उपलब्ध नहीं है। इससे बड़ा आश्चर्य और क्या हो सकता है? दूर संचार के एक वरिष्ठ अधिकारी ए. के मित्तल, उप महानिदेशक (ए.एस) ने 'थर्ड आई वर्ल्ड न्यूज़' को दिए लिखित जवाब में कहा है कि दूरसंचार स्पेक्ट्रम घोटाले, घोटाले की कुल राशि आदि के बारे में मांगी गयी सूचना का जवाब देने के लिए उसके पास कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।
 
 जिस दूरसंचार घोटाले को लेकर संसद की पूरी शीतकालीन सत्र हंगामे की भेट चढ़ गयी और करोड़ों रूपयों का नुकसान हुआ। जिस घोटाले को लेकर पूरा विपक्ष एक जुट हो गया, जिस घोटाले को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह खुद संसद की लोक लेखा समिति के सामने पेश होने की बात कह डाली उस घोटाले पर दूरसंचार मंत्रालय का एक वरिष्ठ अधिकारी कहता है कि उसके पास घोटाले से संबंधित जानकारी देने के लिए कोई जवाब नहीं है इससे बड़ा बेहूदापन जवाब और क्या हो सकता है। हमने यह जानकारी आरटीआई कानून के तहत मांगी थी। जिसपर मंत्रालय का इस तरह का जवाब मिला है।
 
दूरसंचार मंत्रालय जो सन् 2010 का घोटाले का मुख्यकेंद्र बिंदु था के जिम्मेदार सूचना अधिकारियों का यह जवाब कई सवाल खड़े कर देते हैं। पौने दो लाख करोड़ के इस घोटाले की जानकारी मंत्रालय के उन सूचना अधिकारियों के पास क्यों नहीं है जिनकी नियुक्त ही सूचना देने के लिए हुई है और वह जिसके लिए कानून रूप से अधिकृत हैं। क्यो संबंधित मंत्रालय ने संबंधित अधिकारियों को इस तरह की मांगी गयी जानकारी देने से रोक रखा है? हमें ए.के. मित्तल साहब ने जवाब तो नहीं दिया लेकिन सलाह जरूर दे डाली कि आप यह जानकारी वित्त मंत्रालय और सीबीआई से प्राप्त करें जो जांच कर रही है।
 
देश के इतने बड़े घोटाले की जानकारी प्राप्त करने के लिए आरटीआई का सहारा लेना पड़ा लेकिन उसका भी समुचित जवाब नहीं दिया गया। जबकि घोटाले से संबंधित जो भी जानकारियां मांगी गयी थी वह बहुत सामान्य थीं। जिसके कुछ अंश दिए जा रहे हैं।
सवाल कुछ इस तरह थे- टेलीकॉम घोटाले (स्पेक्ट्रम) घोटाले में किन लोगों को हाथ है, कुल कितने करोड़ का घोटाला हुआ है। घोटाले की जांच कौन-कौन सी एजेंसियां कर रही हैं। घोटाले की जांच कब शुरू की गयी। नीरा राडिया का नाम किस प्रकार से घोटाले में शामिल हुआ, राडिया के अलावा और किन लोगों के नाम इस घोटाले से जुड़े हुए हैं। क्या इस घोटाले में किसी रूप में किसी मीडिया घराने का नाम भी शामिल है? या कोई मीडिया कर्मी किसी न किसी रूप में इस घोटाले में शामिल हुआ है। ये पूछे गये सवालों के कुछ अंश हैं। जिनके जवाब में कहा गया कि आप ये सवाल वित्त मंत्रालय और सीबीआई से पूछे। यह तो वही बात हुई कि घर में चोरी हुई बात पड़ोसी से पूछने को कह दी जाए।
 

प्याज पर हाहाकर लेकिन 400 रुपए किलो के लहसुन पर सब चुप हैं?


 

नई दिल्ली।
प्याज की मंहगाई पर सब लोग गुहार मचाए हुए हैं लेकिन 400 रूपए किलो बिक रहे लहसुन पर किसी की नज़र नही है सब चुप हैं। इन दिनों लहसुन के खुदरा मूल्य 30-40 रूपए प्रति सौ ग्राम बिक रही है, लेकिन लहसुन की इस महंगाई पर मीडिया से लेकर सरकार भी कुछ नहीं बोल रही है। जबकि भारतीय रसोईं के लिए जितना प्याज का महत्व है उतना ही महत्व लहसुन का भी है। लहुसन भारतीय रसोईंये के अलावा कई आयुर्वेदिक दवाओं में भी इसका बड़ी मात्रा में इस्तेमाल किया जाता है। फिलहाल बाजार में लहसुन की औसत कीमत 400 रूपए प्रति किलो है। पिछले कुछ महीनों से भारतीय खुदरा बाजार पर जैसे किसी तरह की कोई नियंत्रण सरकार का नहीं रह गया है। फिलहाल दिसंबर माह में खाद्य पदार्थों के जारी मुद्रास्फीति की दर से भी यही पता चलता है कि सरकार ने शायद यही ठान लिया है कि बढ़ने दो मंहगाई और लहसुन प्याज के दामों को!
 
 प्याज के बढ़ते दामों पर जहां चारों तरफ एक तरह से हाहाकार मचा हुआ है वहीं 30-40 रूपये किलों बिकने वाला लहुसन 300-400 रूपए किलो के भाव से बिक रहा है। देश के कई प्रमुख थोक सब्जी के बाजारों में दिसंबर माह में मुंबई के वाशी के मंडी में लहसुन का थोक भाव करीब 450-500 रुपए किलो बिका। जबकि इसी लहसुन को खुदरा विक्रेताओं ने करीब 650 से 750 रुपए प्रति किलो दिसंबर माह में बेचा गया। दिल्ली के कई खुदरा बाजारों में लहसुन के भाव करीब 450 रूपए किलो रहे। इस समय भी लहसुन के भाव इतना ज्यादा है कि आम आदमी लहसुन को खरीदकर खाने की बात तो छोड़ दे उसे सूंघ भी नहीं सकते हैं।
 
लहसुन की बड़ी पैदावार उत्तर भारत के किसान करते हैं। बढ़े हुए लहसुन के दामों के बारे में तर्क दिया जा रहा है कि इस बार उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश. राजस्थान, छत्तीसगढ़, बिहार और पंजाब में लहुसन की पैदावर कम हुई है जिसकी वजह से लहुसन के दाम और चांदी के दाम किसी न किसी रूप में बराबर चल रहा है। इस समय थोक मंडी में सुपर बंपर लहसुन 140 रुपये से बढ़कर 350 रुपये से 400 रुपये तक, लंबा लहसुन 160 रुपये से बढ़कर 375 रुपये से 425 रुपये और मोटा लहसुन 200 रुपये से बढ़कर 450 रुपये तक हो चुका है। इस तरह अगर हम प्याज से लहसुन की तुलना करें तो प्याज के वर्तमान दामों से लहुसन के दाम 10 गुना से अधिक है।
 
उधर सूत्रों का कहना है कि किसी भी खाद्य चीजों का दाम बढ़ाने में दो कारक काम करते हैं। एक तो सरकार का इसमें कोई हाथ होता है दूसरा जमाखोरी और कालाबाजारी इसका सबसे बड़ा कारण है। सरकार की इसमें एक सबसे बड़ी चाल होती है कि पहले किसी चीज के दामों को बेताहासा वृद्धि करना इसका सीधा उपाय बाजार में जितनी खपत है उसका 50-60 प्रतिशत को रोक देना उसके बाद दामों में बेतहासा वृद्धि होती है। जैसे बाजार में प्याज की कीमत जहां 15 रूपए किलो थी वही प्याज 70-80 रूपए प्रति किलो बढ़ा दी गयी। अब उसे सस्ता बताकर 40-45 रूपए किलो बेचा जा रहा है। यह लोगों को बेवकूफ बनाने की सबसे बड़ी चाल होती है। यही हाल लहसुन की है 35-40 रूपये किलो का लहसुन करीब 400 रूपए किलो बेचा जा रहा है। लेकिन इस तरफ किसी की कोई नज़र नहीं जा रही है। सबसे बड़ी बात तो है कि इसका फायदा छोटे और मझले किसानों को न के बराबर मिल पाता है जबकि सबसे बड़ा फायदा दलालों और बड़े व्यापारियों का होता है। इसमें भी सबसे बड़ी भूमिका स्थानीय और कुछ बड़े नेताओं की होती है। जो बढ़ाने वाले मूल्यों को जमकर खेलते हैं और आम जनता हाय-हाय करती रह जाती है

news

Thursday, January 6, 2011

खुशप्रीत खाकी राजनीति की बलि चढ़ा

चंडीगढ़. चंडीगढ़ पुलिस के अफसरों में को-ऑर्डिनेशन की कमी और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की भावना खुशप्रीत की मौत का कारण बनी है।

यदि चंडीगढ़ पुलिस के क्राइम ब्रांच, इंटेलीजेंस और अन्य अफसर मिल-जुलकर काम करते तो खुशप्रीत को अपहर्ताओं के चंगुल से छुड़ाया जा सकता था और उसकी जान बच सकती थी। लेकिन इंटेलीजेंस अभी तक अपहर्ताओं के मोबाइल तक ट्रेस नहीं करवा पाई। चंडीगढ़ पुलिस में राजनीति पूरी तरह हावी है। बड़े अफसर एक-दूसरे को एसएसपी के सामने नीचा दिखाने के लिए कुछ भी कर जाते हैं।

खुशप्रीत के केस में भी को-ऑर्डिनेशन से काम न होने के पीछे यही राजनीति कारण बनी रही। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चंडीगढ़ पुलिस के एक अफसर से बात करने पर उन्होंने कहा कि यदि केस उनके पास होता तो आसानी से हल हो जाता और खुशप्रीत की जान भी बच जाती।

क्राइम ब्रांच की भूमिका पर सवालिया निशान

खुशप्रीत केस में चंडीगढ़ क्राइम ब्रांच की भूमिका पर सवालिया निशान लग गया है। जब से खुशप्रीत किडनैप हुआ, तब से क्राइम ब्रांच न तो अपहर्ताओं के मोबाइल फोन ट्रेस करके उन तक पहुंच सकी और न ही यह तक पता लगा सकी कि अपहर्ता बुड़ैल के ही हैं या किसी बाहरी क्षेत्र के। अब पुलिस को इस बारे में कोई जवाब देते नहीं बन रहा।

राज्यों को लेकर मतभेद

चंडीगढ़ में पंजाब और हरियाणा दोनों प्रदेशों के पुलिस अफसर हैं। कई जगह तो हरियाणा के अफसर पंजाब के अफसरों को पसंद ही नहीं करते। बताया जाता है कि हरियाणा के अफसर चंडीगढ़ में अपना दबदबा कायम रखना चाहते हैं और पंजाब के अफसरों को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं। इन दोनों राज्यों के पुलिस अफसरों में तालमेल की कमी होने का असर कई केसों पर पड़ता है

खुशप्रीत को चाहिए इंसाफः न आंसू थमे, न आक्रोश

चंडीगढ़. खुशप्रीत की मौत पर न आंसू थमे हैं, न आक्रोश। वीरवार को बुड़ैल से लेकर सेक्टर 16 के अस्पताल तक पुलिस के खिलाफ लोगों का गुस्सा दिखा। पुलिस ने भी अपनी सारी ताकत पब्लिक से निपटने में लगा दी है। हत्यारों की तलाश के मामले में उसके हाथ अब भी खाली हैं। इस बीच होम सेक्रेटरी राम निवास ने केस की मजिस्ट्रेट जांच के आदेश दे दिए हैं। जांच का जिम्मा डायरेक्टर ट्रांसपोर्ट एमएल शर्मा (पीसीएस) को दिया गया है। उन्हें दस दिन के भीतर रिपोर्ट सौंपने को कहा गया है।

बुड़ैल में स्थिति तनावपूर्ण बनी रही। धारा 144 बेअसर रही और लोगों ने इकट्ठे होकर पुलिस के खिलाफ नारेबाजी की। लोगों ने ईंट, पत्थर बरसाए तो पुलिस ने लाठीचार्ज किया। पब्लिक के गुस्से से बुड़ैल चौकी को बचाने के लिए पुलिस ने सड़क पर बैरिकेड लगाकर रास्ता बंद रखा। गुस्साए लोगों ने सेक्टर 33-45 की डिवाइडिंग रोड पर भी तोड़फोड़ की। लोगों ने पुलिस बीट बॉक्स, लाइटों, लेटर बॉक्स को तोड़ डाला।

नहीं खुली एक भी दुकान

स्थानीय दुकानदारों ने वीरवार को रोष स्वरूप बुड़ैल की सभी दुकानें बंद रखी। सेक्टर 46 मार्केट में भी दुकानदारों ने दोपहर दो बजे तक दुकानें बंद रखी। मार्केट की पार्किग में काले झंडे लगाकर पुलिस की निंदा की।

एसपी की गाड़ी पर मारी ईंट

एसपी ऑपरेशन आरएस घुम्मप वीरवार शाम खुद जिप्सी चलाकर बुड़ैल पहुंचे। उनके साथ एमएल शर्मा व कुछ मुलाजिम भी थे। जिप्सी को देखकर कुछ महिलाएं आगे खड़ी हो गईं। जिप्सी रुकी तो किसी ने ईंट दे मारी। इस पर एसपी ने लाठीचार्ज के आदेश दे दिए। लाठियां बरसते ही लोग भाग खड़े हुए, आसू गैस भी छोड़ी गई।

जवाब से भागती रहीं पुलिस

जीएमएसएच में पुलिस और प्रशासन के अधिकारी मौजूद थे। लेकिन सभी मीडिया का सामना करने से भागते रहे। एसपी ट्रैफिक एंड सिक्योरिटी एचएस दून ने बस इतना ही कहा, केस की जांच चल रही है।

सुनने पड़े तीखे कमेंट

जीएमएसएच-16 में पुलिस को लोगों के गुस्से का सामना करना पड़ा। बुड़ैल से आए लोगों व खुशी के परिजनों ने पुलिस को नाकामी के लिए कोसा। मीडिया की मौजूदगी में पुलिस चुपचाप सब सुनती रही। कुछ महिलाओं ने पुलिस को चूड़ियां पहनने को कहा।

पहले कार्रवाई, फिर पोस्टमॉर्टम

खुशप्रीत के शव का वीरवार को पोस्टमॉर्टम नहीं हो पाया। जीएमएसएच-16 में खुशप्रीत के परिजन और बुड़ैल के लोग दोषी पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई की मांग पर अड़े रहे। पिता लखबीर सिंह ने भी केस की जांच में लापरवाही बरतने वाले अफसरों पर कड़ी कार्रवाई की मांग करते हुए पोस्टमॉर्टम करवाने से इंकार कर दिया। सुबह से बुड़ैल के लोग और परिजन हॉस्पिटल पहुंचने लगे। तनावपूर्ण माहौल को देखते हुए यहां भारी संख्या में पुलिस तैनात की गई। 12 बजे तक हॉस्पिटल पुलिस छावनी में बदल चुका था।

पुलिस और परिजनों के बीच नोकझोंक भी होती रही। एसपी ट्रैफिक एंड सिक्योरिटी एचएस दून, डीएसपी क्राइम सतबीर सिंह, डीएसपी ऑपरेशन जगबीर सिंह समेत कई पुलिस अधिकारी हॉस्पिटल पहुंचे। एडीसी पीएस शेरगिल भी मौजूद रहे। करीब एक बजे खुशप्रीत के पिता लखबीर सिंह हॉस्पिटल आए। तभी परिजनों ने पोस्टमॉर्टम नहीं करवाने की बात उठाई। लखबीर पुलिस के साथ अंदर चले गए।

इसके बाद खुशप्रीत के चाचा सुखविंदर सिंह अंदर गए। इसके फौरन बाद लखबीर बाहर आ गए और केस सुलझाने में नाकाम रहे जिम्मेदार अफसरों पर कार्रवाई की मांग की। यह मांग पूरी होने न होने तक परिजनों ने पोस्टमार्टम न करवाने का फैसला लिया और हॉस्पिटल से वापस चले गए

जीवन शैली से जुड़ी बीमारियों का वर्ष

जीवन शैली से जुड़ी बीमारियों का वर्ष




आधुनिक विकास के साथ-साथ आधुनिक बीमारियां भी धीरे-धीरे अपनी जगह बना रही हैं। 2010 में इस जीवन शैली से उत्पन्न बीमारियों से निपटना हमारे लिए एक बड़ी चुनौती होगी। निश्चित तौर पर तनाव बढ़ेगा, काम के लंबे घंटे होंगे। बोझ व चिंताएं दुगुनी होंगी। ऐसे में पुरानी बीमारियों के बढ़ने के साथ नई बीमारियों के पैदा होने का खतरा भी होगा। इस चुनौती से निपटने के लिए जरूरी है जीवन शैली में बुनियादी बदलाव।

हमारे जीवन में शारीरिक श्रम के लिए कोई स्थान नहीं है। हम ज्यादा काम दिमाग या हाथ से करते हैं। बाकी समय हम या तो कुर्सी पर बैठे होते हैं या अपनी गाड़ियों में। शारीरिक निष्क्रियता नई जीवन शैली का अभिन्न हिस्सा है। व्यायाम न करने के कारण पेट, आंतों और ब्रेस्ट का कैंसर होने की संभावना होती है। विभिन्न शोधों में यह बात उभरकर आई है कि शारीरिक व्यायाम न करने वाली स्त्रियां ज्यादा ब्रेस्ट कैंसर की शिकार होती हैं।

पुराने समय में स्त्रियां घरों में और पुरुष बाहर शारीरिक श्रम करते थे, इसलिए वे इन बीमारियों से बचे रहते थे। व्यायाम न करने के कारण हाई ब्लडप्रेशर, हाइपरटेंशन, ऑस्टियोपोरोसिस, डायबिटीज जैसी बीमारियों की संभावना बढ़ जाती है। डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों के मुताबिक भारत में इन बीमारियों की संख्या पश्चिम की तुलना में बहुत ज्यादा है। इस जीवन शैली से उपजा है आधुनिक खान-पान, जंक फूड और ऐसी चीजें, जिनमें वसा की मात्रा बहुत ज्यादा है।

घरों में भी भोजन में आमतौर पर ज्यादा तेल-मसाले का इस्तेमाल होता है। इससे भी पेट और आंतों का कैंसर हो सकता है। ज्यादा तेल-घी का सेवन कोलेस्ट्रॉल बढ़ाता है, जिससे हार्ट अटैक की आशंका बढ़ जाती है। आजकल शराब और सिगरेट सोशलाइट होने का एक जरिया बन गया है, जिसके बगैर आप आधुनिक नहीं कहलाते। शराब के सेवन से गैस्ट्रिक और लीवर कैंसर का खतरा होता है। शराब के साथ अक्सर लोग चिप्स या तली-भुनी चीजें खाते हैं।

यह सेहत के लिए खतरनाक है। तंबाकू और पान मसाले के सेवन से मुंह का कैंसर हो सकता है। भारत में मुंह का कैंसर आम बीमारी है, जबकि लंदन या यूरोप के देशों में मुंह का कैंसर नहीं होता, क्योंकि वहां पान मसाले जैसी चीजें खाने का प्रचलन नहीं है। वहां सिगरेट पीने के कारण फेफ ड़ों का कैंसर काफी होता है।

नई पीढ़ी आधुनिक दिखने के लिए जो सिगरेट, शराब अपना रही है, वह उनके लिए बीमारियों की खान है। इन बीमारियों को दूर रखने और स्वस्थ जीवन के लिए जरूरी है कि हम आधुनिकता को अपनाएं, लेकिन आधुनिक निष्क्रियता से दूर रहें। दिनचर्या व खानपान प्रकृति के निकट हों। नए साल में अगर हम स्वस्थ मन व मस्तिष्क के साथ जीना चाहते हैं तो कुछ बातें ध्यान में रखनी जरूरी हैं।

प्रतिदिन कम से कम आधा घंटा व्यायाम करें। अगर सुबह समय के अभाव के कारण संभव न हो तो दिन में किसी भी समय व्यायाम किया जा सकता है।
खाने में तेल, घी, मसाले का सेवन न के बराबर करें। ज्यादातर भोजन उबला और सादा हो।
खाने में फल व हरी सब्जियों का उपयोग करें। कच्ची सब्जियां, सलाद और फाइबर वाले पदार्थो का सेवन करें।

पिछले कुछ समय में भारत में लड़कियों में सरवाइकल कैंसर भी काफी तेजी के साथ बढ़ा है। इस बीमारी की वजह भी आधुनिक जीवन शैली ही है, लेकिन इसका इलाज भी मौजूद है। सरवाइकल कैंसर का एक टीका बाजार में है। 14 से 22 साल की उम्र के बीच लड़कियों को यह टीका जरूर लगवाया जाना चाहिए। इससे सरवाइकल कैंसर की संभावना खत्म हो जाती है। सिर्फ थोड़ी सी जानकारी और सावधानी से बीमारियों से मुक्त स्वस्थ जीवन यापन किया जा सकता है। इसके लिए जरूरी है प्रकृति से जुड़ी और वैज्ञानिक जीवन शैली।

भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई आसान नहीं

आज जहां समाज में नायकों की कमी हो गई है, वहां क्या भ्रष्टाचार को उजागर करने वालों को हम अपना नायक नहीं बना सकते? माना कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई आसान नहीं है, लेकिन क्या कभी कोई बड़ी चीज आसानी से हासिल हुई है?

विनीत नारायण, सत्येंद्र दुबे, रश्मि नायक : इनमें से कितने नाम आपने सुने हैं? शायद तीनों या शायद एक भी नहीं। विनीत नारायण ने सबसे पहले कुख्यात हवाला घोटाले का खुलासा किया था तो सत्येंद्र दुबे ने देश में राष्ट्रीय राजमार्गो के निर्माण में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर करने की कोशिश की थी। रश्मि नायक की भूमिका आजकल सबसे चर्चित २जी घोटाले को उजागर करने में रही है। उन्हीं ने नीरा राडिया के खिलाफ वित्त मंत्री को शिकायत भेजी थी, जिस पर कार्रवाई करते हुए नीरा राडिया के फोन रिकॉर्ड किए गए। आज ये ही टेप्स घोटाले और उसमें नेता-अफसर-व्यवसायियों के गठजोड़ को उजागर कर रहे हैं। विनीत नारायण आजकल बृजक्षेत्र में जल संवर्धन पर एक छोटे-से समूह के साथ कार्य कर रहे हैं, सत्येंद्र दुबे की हत्या कर दी गई, जबकि रश्मि नायक ने ऐसी किसी शिकायत से अपने को अलग कर लिया है। पिछले कुछ समय से ऐसा लग रहा है जैसे भ्रष्टाचार से जुड़े घोटालों की बाढ़ आ गई है। हर नया घोटाला पिछले से बड़ा होता जा रहा है, जो यह बताता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई निष्प्रभावी साबित हो रही है। मुंबई में आदर्श हाउसिंग घोटाला हुआ, पर आप किसी आम मुंबईवासी से पूछिए तो जवाब यही मिलेगा कि ऐसे दर्जनों हाउसिंग घोटाले और हैं, जिन पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। जरा दिमाग पर जोर डालें और याद करें कि आदर्श सोसायटी घोटाले का खुलासा करने में किसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी? शायद ही आप उस शख्स या समूह का नाम ले पाएं। भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में यह हमारा सबसे कमजोर पहलू है।

गैलप इंटरनेशनल ने साल के प्रारंभ में देश में एक सर्वे किया था, जिसमें ५४ फीसदी लोगों ने माना कि उन्होंने पिछले एक वर्ष में रिश्वत देकर अपना कार्य कराया। चाहे आप रिश्वत देने को किसी भी कारण से जायज ठहराएं, लेकिन यह भी उतना ही कटु सत्य है कि ऐसे प्रत्येक कार्य से देश के ही किसी अन्य नागरिक के न्यायपूर्ण अधिकारों की अनदेखी होती है। कल जब यही व्यक्ति हताश होकर रिश्वत देकर अपना कार्य कराता है तो हम व्यवस्था को कोसने लगते हैं। ट्रेन में बिना आरक्षण यात्रा करते समय टीटीई को पैसे देकर खाली बर्थ हथियाते समय कभी भी यह विचार हमारे मन में क्यों नहीं आता है कि जिस यात्री के पास प्रतीक्षा सूची का टिकट है, हम उसका हक मार रहे हैं?

ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक है कि अनैतिक तरीके से ऊपर उठे लोगों के बीच एक अघोषित-सा गठजोड़ बन जाता है, जो यह सुनिश्चित करता है कि दोषी को सजा मिले या न मिले, पर जिसने भ्रष्टाचार को उजागर किया, उसे इतना हतोत्साहित तो किया ही जाए कि औरों के लिए नजीर बने। कुछ दिनों पहले पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ का एक बयान बड़ी सुर्खियों में आया था। मुशर्रफ ने कहा कि उनके और वाजपेयीजी के मध्य आगरा समझौता एक इतिहास बना देता, लेकिन काटजू नाम के एक अधिकारी ने ऐसा नहीं होने दिया। वास्तव में विवेक काटजू ने, जो उस समय विदेश मंत्रालय में भारत-पाक मामलों के संयुक्त सचिव थे, यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया था कि दोनों राष्ट्राध्यक्षों के साझा बयान में आतंकवाद भी उसी प्रमुखता से शामिल हो, जिस प्रमुखता से कश्मीर का उल्लेख किया जा रहा था। मुशर्रफ को यह मंजूर नहीं था, इस कारण वार्ता विफल हो गई। अब जरा हमारे पूरे तंत्र का इस विषय पर रुख देखें। काटजू ने वही किया, जो एक अच्छे भारतीय को करना चाहिए था, लेकिन क्या सरकार के किसी प्रतिनिधि ने यह कहने की जरूरत समझी कि काटजू सही थे? मुशर्रफ के बयान को प्रमुखता से छापने वाले मीडिया ने भी काटजू की पीठ थपथपाने की जरूरत नहीं समझी। केवल नेता प्रतिपक्ष का बयान आया और वह भी ऐसा था मानो काटजू का बचाव किया जा रहा हो। अच्छे लोगों के प्रति तंत्र की यह बेरुखी भी भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई में कमजोर कड़ी है।

समाज में गिरते नैतिक मूल्यों के बावजूद समाज के हर घटक में अच्छे लोगों की कमी नहीं है, लेकिन धीरे-धीरे इन नेक लोगों पर नकारात्मकता हावी होती जाती है। तंत्र की उदासीनता ऐसे लोगों को निराशावाद की ओर धकेलती है। नतीजा यह होता है कि जो लोग समाज को प्रगति के रास्ते पर ले जाने में अहम भूमिका अदा कर सकते थे, वे आपसी चर्चाओं द्वारा ही मन की भड़ास निकालने को मजबूर हो जाते हैं। धीरे-धीरे उनकी यह धारणा मजबूत होती जाती है कि व्यवस्था में इतना घुन लग चुका है कि अब इसका कुछ भी भला नहीं हो सकता। हाल ही में एक यात्रा के दौरान दो विद्वानों से मेरी भेंट हुई। उनमें से एक मसूरी अकादमी में नए आईएएस अधिकारियों को संबोधित कर लौट रहे थे। वे इस बात से व्यथित नजर आ रहे थे कि आईएएस अधिकारियों के चयन और प्रशिक्षण प्रक्रिया में अनेक खामियां हैं, जिनके कारण ऐसे लोग भी चयनित हो जाते हैं, जो भविष्य में आसानी से भ्रष्ट बन सकते हैं। ऐसी परिस्थितियों में जरूरी हो गया है कि भ्रष्टाचार को उजागर करने की हिम्मत दिखाने वाले लोगों को समाज पहचाने और प्रमुखता दे। ऐसे लोगों की सुरक्षा के लिए कई विकसित देशों में कानून हैं, किंतु हमारे देश में नहीं। अभी तक के जो अनुभव रहे हैं, उनसे यह लगता तो नहीं कि सरकारें ऐसा करने में सक्षम हैं। आज जहां समाज में नायकों की कमी हो गई है, वहां क्या भ्रष्टाचार को उजागर करने वालों को हम अपना नायक नहीं बना सकते? माना कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई आसान नहीं है, लेकिन क्या कभी कोई बड़ी चीज आसानी से हासिल हुई है?
नया साल : यादें और आहटें





सच तो यह है कि बड़े दलों और करिश्माती नेताओं के प्रति रुझान भारतीय लोकतंत्र के गुणसूत्रों में पैवस्त है। जनता दल के तीनेक प्रयोगों ने दिखाया है कि बड़े नेताओं से विहीन दल छोटी अवधि के विकल्प होते हैं। हमारे बहुरंगी राज-समाज को लंबी दौड़ के लिए उत्तम नस्ल का घोड़ा चाहिए, जो सिर्फ स्थानीय ही नहीं, राष्ट्रीय अरमानों का वजन भी पूरे पांच सालों तक अपनी कड़ियल पीठ पर उठा सके।

अंग्रेजी की जानी-मानी लेखिका वर्जीनिया वुल्फ ने कभी लिखा था कि 1910 के आसपास मनुष्य स्वभाव बदल गया। उसके ठीक सौ साल बाद वर्ष 2010 के खत्म होते-होते जो नजारे दिख रहे हैं, उससे लगता है कि दुनिया का मिजाज एक बार फिर जा बदला है। अमेरिका से लेकर भारत और चीन तक हमने क्रांतिकारी आर्थिक और राजनीतिक बदलावों के साथ हर जगह नई सूचना और संचार तकनीक के मार्फत विचार, पूंजी या सूचना के लेन-देन के तमाम पुराने तरीकों को धराशायी होते देखा। भारत में भी सरकारी गोपनीयता, अभिव्यक्ति की आजादी और निजता बचाने से जुड़े तर्क और सेंसरशिप व कॉपीराइट जैसे मसले जनजीवन में टीवी, इंटरनेट, सर्च इंजिन और हैकिंग की धड़धड़ाती पैठ से अर्थहीन हो उठे हैं। सूचना की दुनिया का सागर आज मोबाइल और केबल टीवी के गागरों में सिमटता जा रहा है। दरभंगा की बेबी कुमारी या फिल्लौर की स्वीटी कौर, जो अब सीधे सेलफोन पर दिल्ली, बेंगलुरू, पटियाला या वैंकुवर, लंदन तक अपने प्रियजनों से बतियाने में सक्षम हैं, पोस्टकार्ड या अंतर्देशीय पर ‘चली जा, चली जा तू चिट्ठी वहां’ वाली भाषा में खत लिखने-लिखवाने की जरूरत महसूस नहीं करतीं। ऐसे समय में जब विपक्ष जेपीसी बिठाने की मांग बुलंद करके पूरा शीत सत्र ठप्प करवा दे, टीवी पर परम फजीहत के बाद मंत्री या मुख्यमंत्री बर्खास्त किए जाएं या खुफिया टेप मीडिया में लीक होने के बाद डीएमके तथा कांग्रेस की दोस्ती तड़कने लगे तो यह मसले भी फूस की आग की तरह पलक झपकते देश भर में चर्चित होने लगे हैं। इसे मीडिया की शरारत कहकर नई तकनीक की हंगामी रफ्तार, विज्ञापनों के असर से बढ़ रही युवा नागरिकों की नई मांगें और अरमान और उन्हें स्वर देने वाली एक नई भाषा को अब कानूनी डंडे से रोकना भी असंभव है।

राज-समाज के अलमबरदार भला मानें या बुरा, सत्ता में बने रहना हो तो अब उनको अपनी ताकत और कमजोरियों के साथ घट-घट व्यापी मीडिया की ताकत पर दोबारा तकलीफदेह ढंग से सोचना पड़ेगा। लोगों की ही तरह राजनीतिक दलों के भी जन्मना अपने कुछ आनुवंशिक गुणसूत्र (डीएनए) होते हैं, जो जनता के बीच उनकी पहली और स्थायी पहचान बनते हैं। 125 बरस पहले देश भर से आए 27 राज्यों के 72 प्रतिनिधि जब मुंबई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज एंड बोर्डिग हाउस में जमा होकर इंडियन नेशनल यूनियन नाम से उस पार्टी की नींव रख रहे थे, जो बाद में इंडियन नेशनल कांग्रेस के नाम से जानी गई तो प्रांतीयता या जाति-धर्म के अलगाववादी आग्रह कहीं नहीं थे। पार्टी के पहले अध्यक्ष (डब्ल्यू सी बनर्जी) ईसाई थे, दूसरे (दादा भाई नौरोजी) पारसी और तीसरे (बदरुद्दीन तैयबजी) मुसलमान। जब कांग्रेस का छठा सम्मेलन मद्रास में हुआ, तब तक सदस्य संख्या 702 हो चुकी थी, जिसमें से 156 मुसलमान थे। उस समय से अब तक कांग्रेस के वे समन्वयवादी गुणसूत्र भारतीय समाज के कुनबापरस्त समन्वयवादी मन को आकर्षित करने में बड़े मददगार साबित हुए हैं। अपने भले दिनों में कांग्रेस भारत की विविधता का पर्याय है और बंगाल या दक्षिण भारत को उसमें और चाहे जो भी कमियां दिखें, पार्टी की हिंदी पट्टी वाली जड़ें या उसकी उत्तर भारतीयता का विरोध वहां नहीं होता है।

इसके उलट भाजपा के गुणसूत्र और आडवाणी, मोदी या मोहन भागवत जैसे नेताओं के मुख से उसका प्रचार उसे आर्यावर्त के हिंदुओं की पार्टी की सार्वजनिक पहचान दिलाते रहे हैं। यह सही है कि उत्तर इंदिरा काल में दक्षिण में कांग्रेस लगातार विरल होती गई और भाजपा ने दक्षिण में अपना आधार बढ़ाया है पर इसके पीछे उत्तर मंडलीय राजनीति का शून्य अधिक था और भाजपा के विचारों के प्रति गहरा आदर कम। उसके सवर्ण मूलक, मुस्लिम रहित उत्तर भारतीय हिंदुत्व के पक्के गाहक दक्षिण में आज भी नहीं हैं और कर्नाटक में येदियुरप्पा का विकल्प खोजने में भाजपा को वैसे ही पसीने छूट रहे हैं, जैसे उत्तराखंड में नि:शंक का। उड़ीसा में नवीन पटनायक ने मौका पाकर उससे पल्ला झाड़ लिया और बिहार की जीत का सेहरा भी नीतीश के माथे बंधा, सुशील मोदी के नहीं। घर के भीतर भी उसे मुरली मनोहर जोशी की चिरौरी करनी पड़ी कि वे पीएसी के अध्यक्ष होते हुए भी उस संस्था को जांच के मामले में जेपीसी से कमतर घोषित कर दें। और उसे यह भी समझ नहीं आ रहा कि वह बिनायक सेन मामले में जेठमलानी को छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार को शर्मिदा करने से कैसे रोके?

युवा दृष्टि में भाजपा जब 2009 की तरह अपनी पृथकतावादी आनुवंशिकी के खिलाफ जाती है तो भी कटती है और जब उसे खुलकर मानती है (जैसे कि उत्तर प्रदेश या जम्मू में) तब भी। युवा जानते हैं कि सूचना सहभागिता के इस नए जमाने में जो महत्वपूर्ण पोशीदा राज संसद या रैलियों में कभी उजागर नहीं किए जाते, अक्सर भीतरी वजहों से प्राइम टाइम में लीक होने लगे हैं और फिर राष्ट्रीय स्तर के ओपिनियन पोल उन पर जनता की प्रतिक्रिया भी लगे हाथ बता देते हैं। और जब ऐसे अनेक लीक संप्रग ही नहीं, भाजपा के दामन में भी धब्बे तथा दलीय टूट उजागर कर रहे हैं, तब शंख बजाकर बड़बोली रैलियों में ‘हम अधिक साफ’ कहकर तलवारें लहराना आज के युवाओं के बीच सराहना नहीं, बल्कि एक प्रागैतिहासिक प्रतिरोध संस्कृति को लेकर खीझ या हंसी ही पैदा करता है। भाजपा और वामदल और सपा-बसपा वगैरह कह सकते हैं कि जेपीसी की मांग तो एक बहाना थी। असल लक्ष्य तो असेंबली चुनावों के करीब खड़े पांच राज्यों की जनता को यह जताना था कि कांग्रेस कैसे अपने भ्रष्टाचार से बोझिल सहयोगी पार्टियों को साथ रखने की क्षमता खोती जा रही है। और जब उसकी पुरानी ताकत चुक गई हो तो चंद छवियों के सहारे चुनी जाकर भी वह कौन सा भाड़ फोड़ लेगी? लेकिन अगर मक्खी निगलकर भी दलों के गठजोड़ को कायम रखना ही भारत का नया यथार्थ है तो फिर पूछा जा सकता है कि किसी भी पार्टी के लिए अखिल भारतीय लीडरों की छवि उभारने की जरूरत ही क्या रही?

सच तो यह है कि बड़े दलों और करिश्माती नेताओं के प्रति रुझान भारतीय लोकतंत्र के गुणसूत्रों में पैवस्त है। जनता दल के तीनेक प्रयोगों ने दिखाया है कि बड़े नेताओं से विहीन दल छोटी अवधि के विकल्प होते हैं। हमारे बहुरंगी राज-समाज को लंबी दौड़ के लिए उत्तम नस्ल का घोड़ा चाहिए, जो सिर्फ स्थानीय ही नहीं, राष्ट्रीय अरमानों का वजन भी पूरे पांच सालों तक अपनी कड़ियल पीठ पर उठा सके। चुनाव जीतने, राज-काज चलाने के अनशन, धरना, रैली या रथ यात्रा की ही तरह राज-काज के अड़ंगे इमर्जेसी, सेंसरशिप और अध्यादेशों से हटाने के पुराने टोटके जो हमारे दलों के फार्माकोपिया में हैं, 2011 में निर्थक बन गए हैं। अब तो जिस दल का शिखर नेतृत्व अपने मूल गुणसूत्रों की ताकत खोए बिना, समय की आहट पहचान कर नई भाषा में अपने तेवर और कलेवर सबसे पहले युवानुरूप बना लेगा, वही आने वाले दशकों में देश की असली आवाज बनकर उभरेगा।
नया साल : यादें और आहटें





सच तो यह है कि बड़े दलों और करिश्माती नेताओं के प्रति रुझान भारतीय लोकतंत्र के गुणसूत्रों में पैवस्त है। जनता दल के तीनेक प्रयोगों ने दिखाया है कि बड़े नेताओं से विहीन दल छोटी अवधि के विकल्प होते हैं। हमारे बहुरंगी राज-समाज को लंबी दौड़ के लिए उत्तम नस्ल का घोड़ा चाहिए, जो सिर्फ स्थानीय ही नहीं, राष्ट्रीय अरमानों का वजन भी पूरे पांच सालों तक अपनी कड़ियल पीठ पर उठा सके।

अंग्रेजी की जानी-मानी लेखिका वर्जीनिया वुल्फ ने कभी लिखा था कि 1910 के आसपास मनुष्य स्वभाव बदल गया। उसके ठीक सौ साल बाद वर्ष 2010 के खत्म होते-होते जो नजारे दिख रहे हैं, उससे लगता है कि दुनिया का मिजाज एक बार फिर जा बदला है। अमेरिका से लेकर भारत और चीन तक हमने क्रांतिकारी आर्थिक और राजनीतिक बदलावों के साथ हर जगह नई सूचना और संचार तकनीक के मार्फत विचार, पूंजी या सूचना के लेन-देन के तमाम पुराने तरीकों को धराशायी होते देखा। भारत में भी सरकारी गोपनीयता, अभिव्यक्ति की आजादी और निजता बचाने से जुड़े तर्क और सेंसरशिप व कॉपीराइट जैसे मसले जनजीवन में टीवी, इंटरनेट, सर्च इंजिन और हैकिंग की धड़धड़ाती पैठ से अर्थहीन हो उठे हैं। सूचना की दुनिया का सागर आज मोबाइल और केबल टीवी के गागरों में सिमटता जा रहा है। दरभंगा की बेबी कुमारी या फिल्लौर की स्वीटी कौर, जो अब सीधे सेलफोन पर दिल्ली, बेंगलुरू, पटियाला या वैंकुवर, लंदन तक अपने प्रियजनों से बतियाने में सक्षम हैं, पोस्टकार्ड या अंतर्देशीय पर ‘चली जा, चली जा तू चिट्ठी वहां’ वाली भाषा में खत लिखने-लिखवाने की जरूरत महसूस नहीं करतीं। ऐसे समय में जब विपक्ष जेपीसी बिठाने की मांग बुलंद करके पूरा शीत सत्र ठप्प करवा दे, टीवी पर परम फजीहत के बाद मंत्री या मुख्यमंत्री बर्खास्त किए जाएं या खुफिया टेप मीडिया में लीक होने के बाद डीएमके तथा कांग्रेस की दोस्ती तड़कने लगे तो यह मसले भी फूस की आग की तरह पलक झपकते देश भर में चर्चित होने लगे हैं। इसे मीडिया की शरारत कहकर नई तकनीक की हंगामी रफ्तार, विज्ञापनों के असर से बढ़ रही युवा नागरिकों की नई मांगें और अरमान और उन्हें स्वर देने वाली एक नई भाषा को अब कानूनी डंडे से रोकना भी असंभव है।

राज-समाज के अलमबरदार भला मानें या बुरा, सत्ता में बने रहना हो तो अब उनको अपनी ताकत और कमजोरियों के साथ घट-घट व्यापी मीडिया की ताकत पर दोबारा तकलीफदेह ढंग से सोचना पड़ेगा। लोगों की ही तरह राजनीतिक दलों के भी जन्मना अपने कुछ आनुवंशिक गुणसूत्र (डीएनए) होते हैं, जो जनता के बीच उनकी पहली और स्थायी पहचान बनते हैं। 125 बरस पहले देश भर से आए 27 राज्यों के 72 प्रतिनिधि जब मुंबई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज एंड बोर्डिग हाउस में जमा होकर इंडियन नेशनल यूनियन नाम से उस पार्टी की नींव रख रहे थे, जो बाद में इंडियन नेशनल कांग्रेस के नाम से जानी गई तो प्रांतीयता या जाति-धर्म के अलगाववादी आग्रह कहीं नहीं थे। पार्टी के पहले अध्यक्ष (डब्ल्यू सी बनर्जी) ईसाई थे, दूसरे (दादा भाई नौरोजी) पारसी और तीसरे (बदरुद्दीन तैयबजी) मुसलमान। जब कांग्रेस का छठा सम्मेलन मद्रास में हुआ, तब तक सदस्य संख्या 702 हो चुकी थी, जिसमें से 156 मुसलमान थे। उस समय से अब तक कांग्रेस के वे समन्वयवादी गुणसूत्र भारतीय समाज के कुनबापरस्त समन्वयवादी मन को आकर्षित करने में बड़े मददगार साबित हुए हैं। अपने भले दिनों में कांग्रेस भारत की विविधता का पर्याय है और बंगाल या दक्षिण भारत को उसमें और चाहे जो भी कमियां दिखें, पार्टी की हिंदी पट्टी वाली जड़ें या उसकी उत्तर भारतीयता का विरोध वहां नहीं होता है।

इसके उलट भाजपा के गुणसूत्र और आडवाणी, मोदी या मोहन भागवत जैसे नेताओं के मुख से उसका प्रचार उसे आर्यावर्त के हिंदुओं की पार्टी की सार्वजनिक पहचान दिलाते रहे हैं। यह सही है कि उत्तर इंदिरा काल में दक्षिण में कांग्रेस लगातार विरल होती गई और भाजपा ने दक्षिण में अपना आधार बढ़ाया है पर इसके पीछे उत्तर मंडलीय राजनीति का शून्य अधिक था और भाजपा के विचारों के प्रति गहरा आदर कम। उसके सवर्ण मूलक, मुस्लिम रहित उत्तर भारतीय हिंदुत्व के पक्के गाहक दक्षिण में आज भी नहीं हैं और कर्नाटक में येदियुरप्पा का विकल्प खोजने में भाजपा को वैसे ही पसीने छूट रहे हैं, जैसे उत्तराखंड में नि:शंक का। उड़ीसा में नवीन पटनायक ने मौका पाकर उससे पल्ला झाड़ लिया और बिहार की जीत का सेहरा भी नीतीश के माथे बंधा, सुशील मोदी के नहीं। घर के भीतर भी उसे मुरली मनोहर जोशी की चिरौरी करनी पड़ी कि वे पीएसी के अध्यक्ष होते हुए भी उस संस्था को जांच के मामले में जेपीसी से कमतर घोषित कर दें। और उसे यह भी समझ नहीं आ रहा कि वह बिनायक सेन मामले में जेठमलानी को छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार को शर्मिदा करने से कैसे रोके?

युवा दृष्टि में भाजपा जब 2009 की तरह अपनी पृथकतावादी आनुवंशिकी के खिलाफ जाती है तो भी कटती है और जब उसे खुलकर मानती है (जैसे कि उत्तर प्रदेश या जम्मू में) तब भी। युवा जानते हैं कि सूचना सहभागिता के इस नए जमाने में जो महत्वपूर्ण पोशीदा राज संसद या रैलियों में कभी उजागर नहीं किए जाते, अक्सर भीतरी वजहों से प्राइम टाइम में लीक होने लगे हैं और फिर राष्ट्रीय स्तर के ओपिनियन पोल उन पर जनता की प्रतिक्रिया भी लगे हाथ बता देते हैं। और जब ऐसे अनेक लीक संप्रग ही नहीं, भाजपा के दामन में भी धब्बे तथा दलीय टूट उजागर कर रहे हैं, तब शंख बजाकर बड़बोली रैलियों में ‘हम अधिक साफ’ कहकर तलवारें लहराना आज के युवाओं के बीच सराहना नहीं, बल्कि एक प्रागैतिहासिक प्रतिरोध संस्कृति को लेकर खीझ या हंसी ही पैदा करता है। भाजपा और वामदल और सपा-बसपा वगैरह कह सकते हैं कि जेपीसी की मांग तो एक बहाना थी। असल लक्ष्य तो असेंबली चुनावों के करीब खड़े पांच राज्यों की जनता को यह जताना था कि कांग्रेस कैसे अपने भ्रष्टाचार से बोझिल सहयोगी पार्टियों को साथ रखने की क्षमता खोती जा रही है। और जब उसकी पुरानी ताकत चुक गई हो तो चंद छवियों के सहारे चुनी जाकर भी वह कौन सा भाड़ फोड़ लेगी? लेकिन अगर मक्खी निगलकर भी दलों के गठजोड़ को कायम रखना ही भारत का नया यथार्थ है तो फिर पूछा जा सकता है कि किसी भी पार्टी के लिए अखिल भारतीय लीडरों की छवि उभारने की जरूरत ही क्या रही?

सच तो यह है कि बड़े दलों और करिश्माती नेताओं के प्रति रुझान भारतीय लोकतंत्र के गुणसूत्रों में पैवस्त है। जनता दल के तीनेक प्रयोगों ने दिखाया है कि बड़े नेताओं से विहीन दल छोटी अवधि के विकल्प होते हैं। हमारे बहुरंगी राज-समाज को लंबी दौड़ के लिए उत्तम नस्ल का घोड़ा चाहिए, जो सिर्फ स्थानीय ही नहीं, राष्ट्रीय अरमानों का वजन भी पूरे पांच सालों तक अपनी कड़ियल पीठ पर उठा सके। चुनाव जीतने, राज-काज चलाने के अनशन, धरना, रैली या रथ यात्रा की ही तरह राज-काज के अड़ंगे इमर्जेसी, सेंसरशिप और अध्यादेशों से हटाने के पुराने टोटके जो हमारे दलों के फार्माकोपिया में हैं, 2011 में निर्थक बन गए हैं। अब तो जिस दल का शिखर नेतृत्व अपने मूल गुणसूत्रों की ताकत खोए बिना, समय की आहट पहचान कर नई भाषा में अपने तेवर और कलेवर सबसे पहले युवानुरूप बना लेगा, वही आने वाले दशकों में देश की असली आवाज बनकर उभरेगा।
नया साल : यादें और आहटें





सच तो यह है कि बड़े दलों और करिश्माती नेताओं के प्रति रुझान भारतीय लोकतंत्र के गुणसूत्रों में पैवस्त है। जनता दल के तीनेक प्रयोगों ने दिखाया है कि बड़े नेताओं से विहीन दल छोटी अवधि के विकल्प होते हैं। हमारे बहुरंगी राज-समाज को लंबी दौड़ के लिए उत्तम नस्ल का घोड़ा चाहिए, जो सिर्फ स्थानीय ही नहीं, राष्ट्रीय अरमानों का वजन भी पूरे पांच सालों तक अपनी कड़ियल पीठ पर उठा सके।

अंग्रेजी की जानी-मानी लेखिका वर्जीनिया वुल्फ ने कभी लिखा था कि 1910 के आसपास मनुष्य स्वभाव बदल गया। उसके ठीक सौ साल बाद वर्ष 2010 के खत्म होते-होते जो नजारे दिख रहे हैं, उससे लगता है कि दुनिया का मिजाज एक बार फिर जा बदला है। अमेरिका से लेकर भारत और चीन तक हमने क्रांतिकारी आर्थिक और राजनीतिक बदलावों के साथ हर जगह नई सूचना और संचार तकनीक के मार्फत विचार, पूंजी या सूचना के लेन-देन के तमाम पुराने तरीकों को धराशायी होते देखा। भारत में भी सरकारी गोपनीयता, अभिव्यक्ति की आजादी और निजता बचाने से जुड़े तर्क और सेंसरशिप व कॉपीराइट जैसे मसले जनजीवन में टीवी, इंटरनेट, सर्च इंजिन और हैकिंग की धड़धड़ाती पैठ से अर्थहीन हो उठे हैं। सूचना की दुनिया का सागर आज मोबाइल और केबल टीवी के गागरों में सिमटता जा रहा है। दरभंगा की बेबी कुमारी या फिल्लौर की स्वीटी कौर, जो अब सीधे सेलफोन पर दिल्ली, बेंगलुरू, पटियाला या वैंकुवर, लंदन तक अपने प्रियजनों से बतियाने में सक्षम हैं, पोस्टकार्ड या अंतर्देशीय पर ‘चली जा, चली जा तू चिट्ठी वहां’ वाली भाषा में खत लिखने-लिखवाने की जरूरत महसूस नहीं करतीं। ऐसे समय में जब विपक्ष जेपीसी बिठाने की मांग बुलंद करके पूरा शीत सत्र ठप्प करवा दे, टीवी पर परम फजीहत के बाद मंत्री या मुख्यमंत्री बर्खास्त किए जाएं या खुफिया टेप मीडिया में लीक होने के बाद डीएमके तथा कांग्रेस की दोस्ती तड़कने लगे तो यह मसले भी फूस की आग की तरह पलक झपकते देश भर में चर्चित होने लगे हैं। इसे मीडिया की शरारत कहकर नई तकनीक की हंगामी रफ्तार, विज्ञापनों के असर से बढ़ रही युवा नागरिकों की नई मांगें और अरमान और उन्हें स्वर देने वाली एक नई भाषा को अब कानूनी डंडे से रोकना भी असंभव है।

राज-समाज के अलमबरदार भला मानें या बुरा, सत्ता में बने रहना हो तो अब उनको अपनी ताकत और कमजोरियों के साथ घट-घट व्यापी मीडिया की ताकत पर दोबारा तकलीफदेह ढंग से सोचना पड़ेगा। लोगों की ही तरह राजनीतिक दलों के भी जन्मना अपने कुछ आनुवंशिक गुणसूत्र (डीएनए) होते हैं, जो जनता के बीच उनकी पहली और स्थायी पहचान बनते हैं। 125 बरस पहले देश भर से आए 27 राज्यों के 72 प्रतिनिधि जब मुंबई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज एंड बोर्डिग हाउस में जमा होकर इंडियन नेशनल यूनियन नाम से उस पार्टी की नींव रख रहे थे, जो बाद में इंडियन नेशनल कांग्रेस के नाम से जानी गई तो प्रांतीयता या जाति-धर्म के अलगाववादी आग्रह कहीं नहीं थे। पार्टी के पहले अध्यक्ष (डब्ल्यू सी बनर्जी) ईसाई थे, दूसरे (दादा भाई नौरोजी) पारसी और तीसरे (बदरुद्दीन तैयबजी) मुसलमान। जब कांग्रेस का छठा सम्मेलन मद्रास में हुआ, तब तक सदस्य संख्या 702 हो चुकी थी, जिसमें से 156 मुसलमान थे। उस समय से अब तक कांग्रेस के वे समन्वयवादी गुणसूत्र भारतीय समाज के कुनबापरस्त समन्वयवादी मन को आकर्षित करने में बड़े मददगार साबित हुए हैं। अपने भले दिनों में कांग्रेस भारत की विविधता का पर्याय है और बंगाल या दक्षिण भारत को उसमें और चाहे जो भी कमियां दिखें, पार्टी की हिंदी पट्टी वाली जड़ें या उसकी उत्तर भारतीयता का विरोध वहां नहीं होता है।

इसके उलट भाजपा के गुणसूत्र और आडवाणी, मोदी या मोहन भागवत जैसे नेताओं के मुख से उसका प्रचार उसे आर्यावर्त के हिंदुओं की पार्टी की सार्वजनिक पहचान दिलाते रहे हैं। यह सही है कि उत्तर इंदिरा काल में दक्षिण में कांग्रेस लगातार विरल होती गई और भाजपा ने दक्षिण में अपना आधार बढ़ाया है पर इसके पीछे उत्तर मंडलीय राजनीति का शून्य अधिक था और भाजपा के विचारों के प्रति गहरा आदर कम। उसके सवर्ण मूलक, मुस्लिम रहित उत्तर भारतीय हिंदुत्व के पक्के गाहक दक्षिण में आज भी नहीं हैं और कर्नाटक में येदियुरप्पा का विकल्प खोजने में भाजपा को वैसे ही पसीने छूट रहे हैं, जैसे उत्तराखंड में नि:शंक का। उड़ीसा में नवीन पटनायक ने मौका पाकर उससे पल्ला झाड़ लिया और बिहार की जीत का सेहरा भी नीतीश के माथे बंधा, सुशील मोदी के नहीं। घर के भीतर भी उसे मुरली मनोहर जोशी की चिरौरी करनी पड़ी कि वे पीएसी के अध्यक्ष होते हुए भी उस संस्था को जांच के मामले में जेपीसी से कमतर घोषित कर दें। और उसे यह भी समझ नहीं आ रहा कि वह बिनायक सेन मामले में जेठमलानी को छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार को शर्मिदा करने से कैसे रोके?

युवा दृष्टि में भाजपा जब 2009 की तरह अपनी पृथकतावादी आनुवंशिकी के खिलाफ जाती है तो भी कटती है और जब उसे खुलकर मानती है (जैसे कि उत्तर प्रदेश या जम्मू में) तब भी। युवा जानते हैं कि सूचना सहभागिता के इस नए जमाने में जो महत्वपूर्ण पोशीदा राज संसद या रैलियों में कभी उजागर नहीं किए जाते, अक्सर भीतरी वजहों से प्राइम टाइम में लीक होने लगे हैं और फिर राष्ट्रीय स्तर के ओपिनियन पोल उन पर जनता की प्रतिक्रिया भी लगे हाथ बता देते हैं। और जब ऐसे अनेक लीक संप्रग ही नहीं, भाजपा के दामन में भी धब्बे तथा दलीय टूट उजागर कर रहे हैं, तब शंख बजाकर बड़बोली रैलियों में ‘हम अधिक साफ’ कहकर तलवारें लहराना आज के युवाओं के बीच सराहना नहीं, बल्कि एक प्रागैतिहासिक प्रतिरोध संस्कृति को लेकर खीझ या हंसी ही पैदा करता है। भाजपा और वामदल और सपा-बसपा वगैरह कह सकते हैं कि जेपीसी की मांग तो एक बहाना थी। असल लक्ष्य तो असेंबली चुनावों के करीब खड़े पांच राज्यों की जनता को यह जताना था कि कांग्रेस कैसे अपने भ्रष्टाचार से बोझिल सहयोगी पार्टियों को साथ रखने की क्षमता खोती जा रही है। और जब उसकी पुरानी ताकत चुक गई हो तो चंद छवियों के सहारे चुनी जाकर भी वह कौन सा भाड़ फोड़ लेगी? लेकिन अगर मक्खी निगलकर भी दलों के गठजोड़ को कायम रखना ही भारत का नया यथार्थ है तो फिर पूछा जा सकता है कि किसी भी पार्टी के लिए अखिल भारतीय लीडरों की छवि उभारने की जरूरत ही क्या रही?

सच तो यह है कि बड़े दलों और करिश्माती नेताओं के प्रति रुझान भारतीय लोकतंत्र के गुणसूत्रों में पैवस्त है। जनता दल के तीनेक प्रयोगों ने दिखाया है कि बड़े नेताओं से विहीन दल छोटी अवधि के विकल्प होते हैं। हमारे बहुरंगी राज-समाज को लंबी दौड़ के लिए उत्तम नस्ल का घोड़ा चाहिए, जो सिर्फ स्थानीय ही नहीं, राष्ट्रीय अरमानों का वजन भी पूरे पांच सालों तक अपनी कड़ियल पीठ पर उठा सके। चुनाव जीतने, राज-काज चलाने के अनशन, धरना, रैली या रथ यात्रा की ही तरह राज-काज के अड़ंगे इमर्जेसी, सेंसरशिप और अध्यादेशों से हटाने के पुराने टोटके जो हमारे दलों के फार्माकोपिया में हैं, 2011 में निर्थक बन गए हैं। अब तो जिस दल का शिखर नेतृत्व अपने मूल गुणसूत्रों की ताकत खोए बिना, समय की आहट पहचान कर नई भाषा में अपने तेवर और कलेवर सबसे पहले युवानुरूप बना लेगा, वही आने वाले दशकों में देश की असली आवाज बनकर उभरेगा।
नया साल : यादें और आहटें





सच तो यह है कि बड़े दलों और करिश्माती नेताओं के प्रति रुझान भारतीय लोकतंत्र के गुणसूत्रों में पैवस्त है। जनता दल के तीनेक प्रयोगों ने दिखाया है कि बड़े नेताओं से विहीन दल छोटी अवधि के विकल्प होते हैं। हमारे बहुरंगी राज-समाज को लंबी दौड़ के लिए उत्तम नस्ल का घोड़ा चाहिए, जो सिर्फ स्थानीय ही नहीं, राष्ट्रीय अरमानों का वजन भी पूरे पांच सालों तक अपनी कड़ियल पीठ पर उठा सके।

अंग्रेजी की जानी-मानी लेखिका वर्जीनिया वुल्फ ने कभी लिखा था कि 1910 के आसपास मनुष्य स्वभाव बदल गया। उसके ठीक सौ साल बाद वर्ष 2010 के खत्म होते-होते जो नजारे दिख रहे हैं, उससे लगता है कि दुनिया का मिजाज एक बार फिर जा बदला है। अमेरिका से लेकर भारत और चीन तक हमने क्रांतिकारी आर्थिक और राजनीतिक बदलावों के साथ हर जगह नई सूचना और संचार तकनीक के मार्फत विचार, पूंजी या सूचना के लेन-देन के तमाम पुराने तरीकों को धराशायी होते देखा। भारत में भी सरकारी गोपनीयता, अभिव्यक्ति की आजादी और निजता बचाने से जुड़े तर्क और सेंसरशिप व कॉपीराइट जैसे मसले जनजीवन में टीवी, इंटरनेट, सर्च इंजिन और हैकिंग की धड़धड़ाती पैठ से अर्थहीन हो उठे हैं। सूचना की दुनिया का सागर आज मोबाइल और केबल टीवी के गागरों में सिमटता जा रहा है। दरभंगा की बेबी कुमारी या फिल्लौर की स्वीटी कौर, जो अब सीधे सेलफोन पर दिल्ली, बेंगलुरू, पटियाला या वैंकुवर, लंदन तक अपने प्रियजनों से बतियाने में सक्षम हैं, पोस्टकार्ड या अंतर्देशीय पर ‘चली जा, चली जा तू चिट्ठी वहां’ वाली भाषा में खत लिखने-लिखवाने की जरूरत महसूस नहीं करतीं। ऐसे समय में जब विपक्ष जेपीसी बिठाने की मांग बुलंद करके पूरा शीत सत्र ठप्प करवा दे, टीवी पर परम फजीहत के बाद मंत्री या मुख्यमंत्री बर्खास्त किए जाएं या खुफिया टेप मीडिया में लीक होने के बाद डीएमके तथा कांग्रेस की दोस्ती तड़कने लगे तो यह मसले भी फूस की आग की तरह पलक झपकते देश भर में चर्चित होने लगे हैं। इसे मीडिया की शरारत कहकर नई तकनीक की हंगामी रफ्तार, विज्ञापनों के असर से बढ़ रही युवा नागरिकों की नई मांगें और अरमान और उन्हें स्वर देने वाली एक नई भाषा को अब कानूनी डंडे से रोकना भी असंभव है।

राज-समाज के अलमबरदार भला मानें या बुरा, सत्ता में बने रहना हो तो अब उनको अपनी ताकत और कमजोरियों के साथ घट-घट व्यापी मीडिया की ताकत पर दोबारा तकलीफदेह ढंग से सोचना पड़ेगा। लोगों की ही तरह राजनीतिक दलों के भी जन्मना अपने कुछ आनुवंशिक गुणसूत्र (डीएनए) होते हैं, जो जनता के बीच उनकी पहली और स्थायी पहचान बनते हैं। 125 बरस पहले देश भर से आए 27 राज्यों के 72 प्रतिनिधि जब मुंबई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज एंड बोर्डिग हाउस में जमा होकर इंडियन नेशनल यूनियन नाम से उस पार्टी की नींव रख रहे थे, जो बाद में इंडियन नेशनल कांग्रेस के नाम से जानी गई तो प्रांतीयता या जाति-धर्म के अलगाववादी आग्रह कहीं नहीं थे। पार्टी के पहले अध्यक्ष (डब्ल्यू सी बनर्जी) ईसाई थे, दूसरे (दादा भाई नौरोजी) पारसी और तीसरे (बदरुद्दीन तैयबजी) मुसलमान। जब कांग्रेस का छठा सम्मेलन मद्रास में हुआ, तब तक सदस्य संख्या 702 हो चुकी थी, जिसमें से 156 मुसलमान थे। उस समय से अब तक कांग्रेस के वे समन्वयवादी गुणसूत्र भारतीय समाज के कुनबापरस्त समन्वयवादी मन को आकर्षित करने में बड़े मददगार साबित हुए हैं। अपने भले दिनों में कांग्रेस भारत की विविधता का पर्याय है और बंगाल या दक्षिण भारत को उसमें और चाहे जो भी कमियां दिखें, पार्टी की हिंदी पट्टी वाली जड़ें या उसकी उत्तर भारतीयता का विरोध वहां नहीं होता है।

इसके उलट भाजपा के गुणसूत्र और आडवाणी, मोदी या मोहन भागवत जैसे नेताओं के मुख से उसका प्रचार उसे आर्यावर्त के हिंदुओं की पार्टी की सार्वजनिक पहचान दिलाते रहे हैं। यह सही है कि उत्तर इंदिरा काल में दक्षिण में कांग्रेस लगातार विरल होती गई और भाजपा ने दक्षिण में अपना आधार बढ़ाया है पर इसके पीछे उत्तर मंडलीय राजनीति का शून्य अधिक था और भाजपा के विचारों के प्रति गहरा आदर कम। उसके सवर्ण मूलक, मुस्लिम रहित उत्तर भारतीय हिंदुत्व के पक्के गाहक दक्षिण में आज भी नहीं हैं और कर्नाटक में येदियुरप्पा का विकल्प खोजने में भाजपा को वैसे ही पसीने छूट रहे हैं, जैसे उत्तराखंड में नि:शंक का। उड़ीसा में नवीन पटनायक ने मौका पाकर उससे पल्ला झाड़ लिया और बिहार की जीत का सेहरा भी नीतीश के माथे बंधा, सुशील मोदी के नहीं। घर के भीतर भी उसे मुरली मनोहर जोशी की चिरौरी करनी पड़ी कि वे पीएसी के अध्यक्ष होते हुए भी उस संस्था को जांच के मामले में जेपीसी से कमतर घोषित कर दें। और उसे यह भी समझ नहीं आ रहा कि वह बिनायक सेन मामले में जेठमलानी को छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार को शर्मिदा करने से कैसे रोके?

युवा दृष्टि में भाजपा जब 2009 की तरह अपनी पृथकतावादी आनुवंशिकी के खिलाफ जाती है तो भी कटती है और जब उसे खुलकर मानती है (जैसे कि उत्तर प्रदेश या जम्मू में) तब भी। युवा जानते हैं कि सूचना सहभागिता के इस नए जमाने में जो महत्वपूर्ण पोशीदा राज संसद या रैलियों में कभी उजागर नहीं किए जाते, अक्सर भीतरी वजहों से प्राइम टाइम में लीक होने लगे हैं और फिर राष्ट्रीय स्तर के ओपिनियन पोल उन पर जनता की प्रतिक्रिया भी लगे हाथ बता देते हैं। और जब ऐसे अनेक लीक संप्रग ही नहीं, भाजपा के दामन में भी धब्बे तथा दलीय टूट उजागर कर रहे हैं, तब शंख बजाकर बड़बोली रैलियों में ‘हम अधिक साफ’ कहकर तलवारें लहराना आज के युवाओं के बीच सराहना नहीं, बल्कि एक प्रागैतिहासिक प्रतिरोध संस्कृति को लेकर खीझ या हंसी ही पैदा करता है। भाजपा और वामदल और सपा-बसपा वगैरह कह सकते हैं कि जेपीसी की मांग तो एक बहाना थी। असल लक्ष्य तो असेंबली चुनावों के करीब खड़े पांच राज्यों की जनता को यह जताना था कि कांग्रेस कैसे अपने भ्रष्टाचार से बोझिल सहयोगी पार्टियों को साथ रखने की क्षमता खोती जा रही है। और जब उसकी पुरानी ताकत चुक गई हो तो चंद छवियों के सहारे चुनी जाकर भी वह कौन सा भाड़ फोड़ लेगी? लेकिन अगर मक्खी निगलकर भी दलों के गठजोड़ को कायम रखना ही भारत का नया यथार्थ है तो फिर पूछा जा सकता है कि किसी भी पार्टी के लिए अखिल भारतीय लीडरों की छवि उभारने की जरूरत ही क्या रही?

सच तो यह है कि बड़े दलों और करिश्माती नेताओं के प्रति रुझान भारतीय लोकतंत्र के गुणसूत्रों में पैवस्त है। जनता दल के तीनेक प्रयोगों ने दिखाया है कि बड़े नेताओं से विहीन दल छोटी अवधि के विकल्प होते हैं। हमारे बहुरंगी राज-समाज को लंबी दौड़ के लिए उत्तम नस्ल का घोड़ा चाहिए, जो सिर्फ स्थानीय ही नहीं, राष्ट्रीय अरमानों का वजन भी पूरे पांच सालों तक अपनी कड़ियल पीठ पर उठा सके। चुनाव जीतने, राज-काज चलाने के अनशन, धरना, रैली या रथ यात्रा की ही तरह राज-काज के अड़ंगे इमर्जेसी, सेंसरशिप और अध्यादेशों से हटाने के पुराने टोटके जो हमारे दलों के फार्माकोपिया में हैं, 2011 में निर्थक बन गए हैं। अब तो जिस दल का शिखर नेतृत्व अपने मूल गुणसूत्रों की ताकत खोए बिना, समय की आहट पहचान कर नई भाषा में अपने तेवर और कलेवर सबसे पहले युवानुरूप बना लेगा, वही आने वाले दशकों में देश की असली आवाज बनकर उभरेगा।

Wednesday, January 5, 2011

अलविदा खुशप्रीतः शहर की जनता को चाहिए जवाब

चंडीगढ़, मोहाली. शहर में दिन प्रतिदिन क्राइम बढ़ता जा रहा है। ठंडे मौसम में पुलिस अफसरों का रवैया भी ठंडा नजर आ रहा है। ऐसे में शहर की जनता को जवाब चाहिए कि आखिर उनकी सुरक्षा किसके भरोसे है। दिनदहाड़े बुड़ैल से बच्चे की किडनैपिंग, किडनैपर्स ने चार लाख रुपये बतौर फिरौती भी वसूले और उसके बावजूद पुलिस हाथ पर हाथ धर कर बैठी रही। जिसका नतीजा यह निकला कि पांच साल के मासूम की बेरहमी से हत्या कर लाश थैले में डालकर सड़क किनारे फेंक दी गई।

खुशप्रीत की हत्या की सूचना ने बुधवार को शहरवासियों के मन में आक्रोश भर दिया। बुड़ैल में लोग सड़क पर उतर आए और पुलिस चौकी की तरफ बढ़ने लगे। उनकी प्रतिक्रिया इस तरह की थी मानो खुशप्रीत उनका ही बेटा था। भीड़ ने पुलिस चौकी को घेर लिया और पथराव करने लगे। लोगों का आरोप था कि पुलिस ने इस केस में भारी लापरवाही बरती है जिसका नतीजा है कि अब खुशप्रीत जिंदा नहीं है। भीड़ को कंट्रोल करने के लिए पुलिस ने लाठीचार्ज किया वहीं हवाई फायर करते हुए आंसु गैस भी फेंकी।

आलम यह था कि सेक्टर 44—45 के डिवाइडर के दूसरी तरफ सेक्टर 44 की ओर से बुड़ैल घर आ रहे लोगों को भी जमकर पीटा। सेक्टर 44 से बुड़ैल घर जा रहे धर्मपाल को जमकर पीट डाला। धर्मपाल को यह भी पता नहीं था कि यह बवाल क्यों है। लेकिन चंडीगढ़ पुलिस ने धर्मपाल की बात सुने बगैर ही जमकर धुनाई कर डाली।

इस दौरान कोई भी पुलिस अधिकारी मौके पर मौजूद नहीं था, वहीं प्रशासन के अधिकारी भी नदारद थे। चंडीगढ़ पुलिस के दंगा रोधक वाहन तथा वाटर कैनन वेन की भी लोगों ने परवाह नहीं की। भीड़ को कंट्रोल करने के लिए पुलिस बिजली विभाग का भी सहारा लिया और पूरे इलाके की लाइट गुल कर दी गई। बुडै़ल में रात को अघोषित कफ्यरू जैसा माहौल रहा।

घरों में आंसू गैस के गोले

बुडै़ल मार्केट कमेटी के प्रेसिडेंट बलजिंद्र सिंह गुजराल के मुताबिक पुलिस ने घरों में घुसकर आंसू गैस के गोले छोड़े और पानी फेंका। उनकेमुताबिक पुलिस ने निर्दोष लोगों को भी पीटा। उन्होंने लोगों के गुस्से को जायज ठहराया और कहा कि जब तक खुशप्रीत की मौत के जिम्मेदारों को सजा नहीं मिल जाती तब तक गुस्सा शांत नहीं होगा।

घटनास्थल पर पहुंचे लोग

खुशप्रीत की मौत की खबर मोहाली में जंगल की आग की तरह फैली। हर कोई मौत का कारण जानने के लिए उत्सुक था। फेज-10,11 तथा 9 के लोग भारी संख्या में जिस जगह से लाश मिली वहां इक्ट्ठे होने लगे। जिन्हें काबू करने के लिए पुलिस को काफी मशक्कत करनी पड़ी। घटना स्थल के आसपास लोगों की भीड़ जमा रही।

मोबाइल पर बता रहे थे साथियों को घटना

जो लोग घटना स्थल पर पहुंचे हुए थे वे खुशप्रीत की लाश मिलने की बात अपने साथियों को मोबाइल फोन के जरिए बता रहे थे। सभी के बताने का तरीका ऐसा था मानो उनका कोई अपना उनसे जुदा हो गया हो। चारों ओर लोग कान से मोबाइल लगाकर इसकी जानकारी आगे बांट रहे थे।

पुलिस अधिकारी भी हुए आहत

मोहाली पुलिस का जो भी अधिकारी घटना स्थल का मुआयना करने आया वह भी खुशप्रीत की मौत से आहत दिखाई दिया। उनके अंदर छिपा बच्चों को प्यार करने का जज्बा भी दिखाई दिया। हरेक अधिकारी लाश को देखकर शेम-शेम कह रहा था।

बहुत बुरा किया दरिंदों ने

मोहाली के फेज-8 निवासी संदीप गुप्ता ने बताया कि उन्हें जब इस घटना के बारे में पता चला तो एकाएक फेज-10 में घटना स्थल पर पहुंचे। उन्हांेने कहा कि बच्चे को मारकर दरिंदों ने बहुत बुरा किया है। सेक्टर-48सी निवासी महिला परवीन कुमारी ने कहा कि जब उन्हें पता चला कि खुशप्रीत की लाश मिली है। ये बात सुनते ही उनकी रुह कांप उठी।

जिसका डर था वही हो गया

झाड़ियों में पड़ी लाश पर अपने बच्चे के स्कूल की वर्दी देख खुशप्रीत के पिता सन्न रह गए। उनके रिश्तेदार उन्हें संभाला जा रहा था, लेकिन वह संभाले भी संभल नहीं रहे थे। ऐसा लग रहा था कि मानो उनकी दुनिया उजड़ गई। रिश्तेदारों ने बड़ी मुश्किल से संभाला खुशप्रीत के पिता ने कहा कि जिसका डर था वहीं कर दिया।

पुलिस की पोल खुली

पुलिस बिना वजह शहर के लोगों को तंग करती है। खुशी के मामले में पुलिस ने किडनैपर्स को चार लाख रुपये भी दिलवा दिए और बच्चे को भी नहीं बचा पाई। ऐसे में किडनैपर्स ने पुलिस की पोल खोल कर रख दी है। पुलिस के आपसी खींचतान का ही यह नतीजा है।

पीसी सांघी, फॉसवेक चेयरमैन

पुलिस फेल रही

शहर में कानून व्यवस्था को बनाए रखने में पुलिस पूरी तरह से फेल रही है। जिसका खामियाजा आज खुशी के परिवार को भुतना पड़ रहा। अगर पुलिस समय रहती किडनैपर्स को पकड़ लेती तो शायद आज खुशी जिंदा होता।

रामबीर भट्टी महासचिव, भाजपा

ढुलमुल रही कार्रवाई

मासूम खुशी की हत्या के लिए पुलिस की ढुलमुल कार्रवाई ही जिममेदार है। अगर पुलिस समय रहते रही रणनीति बनाकर कार्य करती तो मासूम खुशी की अमूल्य जान को बचाया जा सकता था।

सुशील गुप्ता, सिटीजन काउंसिल फॉर ह्यूमन राइट्स

शर्मनाक है यह

खुशप्रीत की मौत के लिए चंडीगढ़ पुलिस जिम्मेदार है। बुड़ैल चौकी और सेक्टर 34 थाना प्रभारी को नौकरी से बर्खास्त किया जाना चाहिए। अधिकारियों का पिछला रिकार्ड सामने आए। यह पुलिस के लिए स्थिति शर्मनाक है।

दिनेश चौहान, कन्वीनर एबीवीपी

नाकाम पुलिस

लोगों द्वारा पुलिस के खिलाफ किया जा रहा ये दंगा बिल्कुल जायज है। पुलिस खुशप्रीत के अपहरणकर्ता को पकड़ने में नाकाम रही है। उनके साथ ऐसा ही व्यवहार होना चाहिए।

मंदीप सिंह, निवासी बुड़ैल

कार्रवाई हो

सिर्फ अफसरों को लाइन हाजिर करने से कुछ नहीं होगा, जो लोग खुशप्रीत के केस की जांच कर रहे थे, उन सभी को बर्खास्त करना चाहिए ताकि सभी को सबक मिले।

पुष्पिंदर सिंह

पुलिस साबित करे अपनी मौजूदगी

पिछले कुछ अरसे से चंडीगढ़ पुलिस की साख लगातार गिरी है। शहर में होने वाली वारदातों को सुलझाने में चंडीगढ़ पुलिस नाकाम रही है। पिछले साल ही सेक्टर 38 वेस्ट में नेहा मर्डर केस न सुलझा पाने के बाद अब चंडीगढ़ पुलिस एक और केस मे नाकाम रही है। बतौर शहरी आम लोग पुलिस के भरोसे ही खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं। लेकिन अब चंडीगढ़ में यह विश्वास डगमगाने लगा है। चंडीगढ़ पुलिस को अपनी घटती साख को हासिल करने के लिए ठोस नीति तय करनी होगी। इसके बाद पुलिस को शहर में अपनी मौजूदगी साबित करनी होगी।

बुड़ैल से किडनैप खुशप्रीत उर्फ खुशी की हत्या -फेज 10 में मिली बॉडी, पटके से गला घोंटा

खुशी खत्मः फेज 10 में मिली बॉडी, पटके से गला घोंटा






चंडीगढ़. बुड़ैल से किडनैप खुशप्रीत उर्फ खुशी की हत्या कर दी गई है। उसकी बॉडी बुधवार दोपहर करीब सवा चार बजे चंडीगढ़ और मोहाली की सीमा पर फेज 10 के पास सड़क किनारे मिली। पुलिस को बॉडी की सूचना वहां से गुजर रहे जसप्रीत ने दी। खुशप्रीत के जिस्म पर स्कूल यूनिफॉर्म थी और सिर का पटका गले में बंधा था। पुलिस का अनुमान है कि पटके से गला घोंटकर हत्या की गई है। उसके मुंह पर चोट के निशान थे।

मौके का मुआयना करने के बाद कड़ी सुरक्षा में पुलिस की ट्रॉमा वैन में बॉडी को जीएमएसएच 16 पहुंचाया गया। जहां डॉक्टरों की टीम ने मुआयने के बाद बॉडी को अस्पताल की मॉर्चरी में रखवा दिया। वीरवार को डॉक्टरों का बोर्ड पोस्टमार्टम करेगा।

चायपत्ती के थैले में डालकर फेंका

नीली धारियों वाली स्कूल की कमीज, नीले रंग की पेंट और पांव में स्कूल के जूते। ऐसी हालत में सड़क किनारे औंधे मुंह खुशी की बॉडी मिली। पास में ही एक थैला पड़ा था। पुलिस का मानना है कि चायपत्ती के खाली थैले में डालकर खुशी की लाश को फेंका गया। सबसे पहले मोहाली पुलिस मौके पर पहुंची, उसके बाद चंडीगढ़ पुलिस को सूचना दी गई। डीएसपी साउथ विजय कुमार और एसएसपी का अतिरिक्त कार्यभार देख रहे एसपी ट्रैफिक व सिक्योरिटी हरदीप सिंह दून पुलिस फोर्स के साथ मौके पर पहुंचे। सेक्टर 36 स्थित सेट्रल फोरेंसिक लैब से तीन विशेषज्ञों की टीम ने भी मौके का मुआयना किया।

कब हुई हत्या

जांच में जुटे पुलिस अफसरों ने बताया कि लाश के आसपास खून के निशान पाए गए हैं। फोरेंसिक विशेषज्ञों ने खुशी के हाथों और पैरों की अंगुलियों को हिलाकर देखा, वह आसानी से मुड़ रहीं थी। इससे पुलिस अंदाजा लगा रही है कि हत्या हुए 24 घंटों से ज्यादा नहीं हुए।

जीएमएसएच 16 में सुरक्षा कड़ी

सेक्टर 16 स्थित गवर्नमेंट मल्टीस्पेशलिटी हॉस्पिटल में खुशी की बॉडी पहुंचने से पहले ही करीब 50 पुलिसकर्मियों को इमरजेंसी के बाहर तैनात कर दिया गया। हंगामे की आशंका को देखते हुए सेक्टर 11 थाने के एसएचओ अनोख सिंह भी वहां तैनात रहे।

क्या कहते हैं पुलिस अफसर

फेज 10 में मौके पर मौजूद एसपी एसएच दून ने कहा, पुलिस के हाथ खुशी के हत्यारे का सुराग लग गया है। जल्द ही उसे पकड़ लिया जाएगा। वहीं मोहाली के एसएसपी गुरप्रीत सिंह भुल्लर का कहना है कि लाश को चंडीगढ़ पुलिस के हवाले कर दिया गया है। इस केस की जांच चंडीगढ़ पुलिस कर रही है, यदि चंडीगढ़ पुलिस जांच में मोहाली पुलिस का सहयोग मांगेगी तो मदद की जाएगी।

ओही है, ओही है

बुड़ैल से खुशी के पिता लखबीर सिंह रिश्तेदारों के साथ कार में पहुंचे। पहले तो लाश देखने की उनकी हिम्मत ही नहीं पड़ी। फिर हिम्मत बंधाते हुए रिश्तेदार उन्हें थोड़ा आगे लेकर गए। दूर से देखते ही लखबीर के मुंह से यही शब्द निकले, ओही है.. ए तां ओही है.. मेरा पुत्त। इसके बाद रिश्तेदार लखबीर को एक तरफ ले गए। थोड़ी देर बाद उन्हें फिर लाश की शिनाख्त करने के लिए लाया गया। दिल पर हाथ रखकर वे किसी तरह बेटे की लाश तक पहुंचे और फूट फूट कर रोने लगे।

21 दिसंबर को हुआ था अपहरण

खुशप्रीत का अपहरण 21 दिसंबर को हुआ था। फिरौती के लिए किडनैपर्स ने उसके चाचा को फोन किया। अगले दिन किडनैपर्स ने बार-बार और अलग-अलग जगहों से फोन किए। हर बार अलग जगह पर रकम पहुंचाने को कहा। अंत में खरड़ के देसूमाजरा में दो मोटरसाइकिल सवार पुलिस की आंखों के सामने चाचा से रुपयों का बैग लेकर फरार हो गए थे। इसके बाद चंडीगढ़ पुलिस खुशी व किडनैपर्स का सुराग लगाने में नाकाम रही।

बुड़ैल में धारा 144- पुलिस से भिड़ी पब्लिक, 26 जख्मी

चंडीगढ़. खुशी की लाश मिलने के बाद बुडै़ल के लोगों का गुस्सा पुलिस पर फूटा। भीड़ ने पुलिस चौकी के सामने जमकर हंगामा किया। पत्थर भी चले। इसमें डीएसपी जगबीर सिंह सहित 14 पुलिस मुलाजिम जख्मी हो गए। सभी को प्राथमिक उपचार के लिए जीएमएसएच 16 में भर्ती करवाया गया है। जवाब में पुलिस ने लाठीचार्ज किया जिसमें करीब एक दर्जन लोग जख्मी हुए हैं। पुलिस ने गांव की तंग गलियों में घुसकर लोगों की धुनाई की। गुस्साए लोगों ने डीएसपी जगबीर सिंह की जिप्सी तोड़ डाली। रात तक बुड़ैल में कफ्यरू जैसे हालात रहे। देर रात यहां धारा 144 लगाकर तीन से ज्यादा लोगों के इकट्ठे होने पर पाबंदी लगा दी गई।

दादी पीजीआई में भर्ती

सदमे के कारण खुशी की दादी कुलवंत कौर की तबीयत बिगड़ गई। उन्हें पीजीआई में भर्ती करवाया गया है। फिलहाल उनकी हालत स्थिर बताई गई है। खुशी के माता, पिता सहित अन्य परिजनों का रो-रो कर बुरा हाल है।
पहचाने जाने के डर से की हत्या!

खुशप्रीत की हत्या की गुत्थी सुलझाने में जुटे पुलिस अफसरों का मानना है कि किडनैपर को बच्च पहचानता था। इसीलिए किडनैपर्स ने पकड़े जाने के डर से उसकी हत्या कर दी। पुलिस खुशी के परिवार के नजदीकियों पर नजर टिकाए हुए है। जल्द ही उनसे पूछताछ भी की जा सकती है। डीएसपी क्राइम सतबीर सिंह का कहना है कि फिलहाल इस मामले में किसी को राउंडअप नहीं किया गया है। सीएफएसएल टीम से कुछ सवालों के जवाब मांगे गए हैं, ताकि हत्यारे तक पहुंचा जा सके।

किडनैपर पेशेवर नहीं

खुशप्रीत की किडनैपिंग के दिन से लेकर उसकी लाश मिलने तक के समय को रिव्यू करने पर पुलिस अफसर मान रहे है कि यह काम किसी पेशेवर किडनैपर का नहीं है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि किडनैपर ने बुड़ैल के आसपास ही खुशी को छिपा कर रखा और अब पकड़े जाने के डर से उसकी हत्या कर दी। खुशी की लाश मिलने से यह साफ हो गया है कि किडनैपर का मोटिव सिर्फ फिरौती लेना नहीं था। यदि किडनैपर्स को फिरौती ही चाहिए थी तो आज खुशप्रीत अपने परिवार के साथ सही सलामत होता।

पुलिस पर भरोसा कैसे करें?

उस वक्त पुलिस क्या कर रही थी जब खुशप्रीत की हत्या हुई..? ये सवाल एक परिवार का नहीं बल्कि हर मां-बाप का है। चंडीगढ़ पुलिस आज पूरे शहर के प्रति जवाबदेह है कि एक बच्चे की सुरक्षा तक न कर सकने वाली फोर्स पर वे भरोसा कैसे करें? क्यों वे उस स्लोगन को सच मानें जिस पर लिखा है ‘वी केयर फॉर यू’? मुस्तैदी और एक्शन का दावा करने वाली फोर्स एक किडनैपिंग के केस को हल नहीं कर पाती, अपनी मौजूदगी में फिरौती की रकम अदा करवाती है और इस सबके बावजूद बच्चे को वापस नहीं ला पाती.. क्या कहा जाएगा ऐसी पुलिस को? पब्लिक जवाब मांग रही है।

एक बच्चा जो अभी ठीक से जिया भी नहीं था, मौत के घाट उतार दिया गया। ये सच है कि उसे बचाया जा सकता था लेकिन पुलिस न तो इस केस की नजाकत और न ही जरूरत को समझ पाई। एक लगे-बंधे र्ढे पर चल रही तफ्तीश का नतीजा जीरो रहा और किडनैपिंग के ठीक पंद्रह दिन बाद बच्चे की लाश ही बरामद की जा सकी। बुड़ैल से 21 दिसंबर को गायब हुआ था खुशप्रीत। घरवालों ने पुलिस को पहले दिन से हर बातचीत और चिंता में शामिल रखा। यानी यह नहीं कहा जा सकता कि घरवाले पुलिस को दरकिनार रखते हुए अपनी तरह से बच्चे को वापस लाने की कोशिश कर रहे थे और प्लानिंग फेल हो जाने के कारण ऐसा हुआ। सबकुछ पुलिस की निगरानी में हो रहा था, इसके बावजूद पुलिस के हाथ न तो कोई सुराग लगा और न ही वह किडनैपर्स के आसपास भी फटक सकी। क्यों इसे पुलिस फेलियर न कहा जाए.?

सवाल पुलिस की कार्यकप्रणाली ही नहीं बल्कि उसकी मुस्तैदी, कोऑर्डिनेशन और सही प्लानिंग के न होने पर भी उठ रहे हैं। पंद्रह दिन में एक से ज्यादा बार ये साबित हुआ है कि उच्च अधिकारियों और केस को डील कर रहे लोगों के बीच खास तरह की टच्यूनिंग का अभाव है। जिस तेजी और इंटेलीजेंस की जरूरत इस तरह के केस को हल करने के लिए दरकार थी वह मिसिंग रही। किडनैपर्स जब लगातार कॉल कर रहे थे पुलिस उन्हें फॉलो करने में असमर्थ रही। तमाम सुविधाओं से लैस चंडीगढ़ फोर्स के पास क्या कमी थी कि उसे इस तरह के केस को हल करने में उसके पसीने छूट गए..?

खुशप्रीत खत्म हो गया.. ये महज एक खबर नहीं बल्कि दिलो में सेंध लगाती असुरक्षा का वो हादसा है जो कमोबेश हर शहरी को प्रभावित कर रहा है। साफ है कि अगर बुड़ैल के एक परिवार ने अपना बच्चा खोया है तो किसी हद तक पुलिस ने खुद के ऊपर लोगों का विश्वास खो दिया है। सवालों के ढेर में सबसे बड़ी चिंता ये है कि किडनैपिंग, फिरौती और हत्या के इस मामले में अब पुलिस कितनी जल्दी दोषियों तक पहुंच पाती है? इस टास्क के साथ पुलिस के सामने सबबे बड़ा चैलेंज बालबच्चों के साथ सकून की चाह रखने वाले उन परिवारों की चिंता को दूर करना भी है जो अपने बच्चों की हिफाजत को लेकर सशंकित हैं।