Thursday, January 6, 2011

भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई आसान नहीं

आज जहां समाज में नायकों की कमी हो गई है, वहां क्या भ्रष्टाचार को उजागर करने वालों को हम अपना नायक नहीं बना सकते? माना कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई आसान नहीं है, लेकिन क्या कभी कोई बड़ी चीज आसानी से हासिल हुई है?

विनीत नारायण, सत्येंद्र दुबे, रश्मि नायक : इनमें से कितने नाम आपने सुने हैं? शायद तीनों या शायद एक भी नहीं। विनीत नारायण ने सबसे पहले कुख्यात हवाला घोटाले का खुलासा किया था तो सत्येंद्र दुबे ने देश में राष्ट्रीय राजमार्गो के निर्माण में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर करने की कोशिश की थी। रश्मि नायक की भूमिका आजकल सबसे चर्चित २जी घोटाले को उजागर करने में रही है। उन्हीं ने नीरा राडिया के खिलाफ वित्त मंत्री को शिकायत भेजी थी, जिस पर कार्रवाई करते हुए नीरा राडिया के फोन रिकॉर्ड किए गए। आज ये ही टेप्स घोटाले और उसमें नेता-अफसर-व्यवसायियों के गठजोड़ को उजागर कर रहे हैं। विनीत नारायण आजकल बृजक्षेत्र में जल संवर्धन पर एक छोटे-से समूह के साथ कार्य कर रहे हैं, सत्येंद्र दुबे की हत्या कर दी गई, जबकि रश्मि नायक ने ऐसी किसी शिकायत से अपने को अलग कर लिया है। पिछले कुछ समय से ऐसा लग रहा है जैसे भ्रष्टाचार से जुड़े घोटालों की बाढ़ आ गई है। हर नया घोटाला पिछले से बड़ा होता जा रहा है, जो यह बताता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई निष्प्रभावी साबित हो रही है। मुंबई में आदर्श हाउसिंग घोटाला हुआ, पर आप किसी आम मुंबईवासी से पूछिए तो जवाब यही मिलेगा कि ऐसे दर्जनों हाउसिंग घोटाले और हैं, जिन पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। जरा दिमाग पर जोर डालें और याद करें कि आदर्श सोसायटी घोटाले का खुलासा करने में किसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी? शायद ही आप उस शख्स या समूह का नाम ले पाएं। भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में यह हमारा सबसे कमजोर पहलू है।

गैलप इंटरनेशनल ने साल के प्रारंभ में देश में एक सर्वे किया था, जिसमें ५४ फीसदी लोगों ने माना कि उन्होंने पिछले एक वर्ष में रिश्वत देकर अपना कार्य कराया। चाहे आप रिश्वत देने को किसी भी कारण से जायज ठहराएं, लेकिन यह भी उतना ही कटु सत्य है कि ऐसे प्रत्येक कार्य से देश के ही किसी अन्य नागरिक के न्यायपूर्ण अधिकारों की अनदेखी होती है। कल जब यही व्यक्ति हताश होकर रिश्वत देकर अपना कार्य कराता है तो हम व्यवस्था को कोसने लगते हैं। ट्रेन में बिना आरक्षण यात्रा करते समय टीटीई को पैसे देकर खाली बर्थ हथियाते समय कभी भी यह विचार हमारे मन में क्यों नहीं आता है कि जिस यात्री के पास प्रतीक्षा सूची का टिकट है, हम उसका हक मार रहे हैं?

ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक है कि अनैतिक तरीके से ऊपर उठे लोगों के बीच एक अघोषित-सा गठजोड़ बन जाता है, जो यह सुनिश्चित करता है कि दोषी को सजा मिले या न मिले, पर जिसने भ्रष्टाचार को उजागर किया, उसे इतना हतोत्साहित तो किया ही जाए कि औरों के लिए नजीर बने। कुछ दिनों पहले पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ का एक बयान बड़ी सुर्खियों में आया था। मुशर्रफ ने कहा कि उनके और वाजपेयीजी के मध्य आगरा समझौता एक इतिहास बना देता, लेकिन काटजू नाम के एक अधिकारी ने ऐसा नहीं होने दिया। वास्तव में विवेक काटजू ने, जो उस समय विदेश मंत्रालय में भारत-पाक मामलों के संयुक्त सचिव थे, यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया था कि दोनों राष्ट्राध्यक्षों के साझा बयान में आतंकवाद भी उसी प्रमुखता से शामिल हो, जिस प्रमुखता से कश्मीर का उल्लेख किया जा रहा था। मुशर्रफ को यह मंजूर नहीं था, इस कारण वार्ता विफल हो गई। अब जरा हमारे पूरे तंत्र का इस विषय पर रुख देखें। काटजू ने वही किया, जो एक अच्छे भारतीय को करना चाहिए था, लेकिन क्या सरकार के किसी प्रतिनिधि ने यह कहने की जरूरत समझी कि काटजू सही थे? मुशर्रफ के बयान को प्रमुखता से छापने वाले मीडिया ने भी काटजू की पीठ थपथपाने की जरूरत नहीं समझी। केवल नेता प्रतिपक्ष का बयान आया और वह भी ऐसा था मानो काटजू का बचाव किया जा रहा हो। अच्छे लोगों के प्रति तंत्र की यह बेरुखी भी भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई में कमजोर कड़ी है।

समाज में गिरते नैतिक मूल्यों के बावजूद समाज के हर घटक में अच्छे लोगों की कमी नहीं है, लेकिन धीरे-धीरे इन नेक लोगों पर नकारात्मकता हावी होती जाती है। तंत्र की उदासीनता ऐसे लोगों को निराशावाद की ओर धकेलती है। नतीजा यह होता है कि जो लोग समाज को प्रगति के रास्ते पर ले जाने में अहम भूमिका अदा कर सकते थे, वे आपसी चर्चाओं द्वारा ही मन की भड़ास निकालने को मजबूर हो जाते हैं। धीरे-धीरे उनकी यह धारणा मजबूत होती जाती है कि व्यवस्था में इतना घुन लग चुका है कि अब इसका कुछ भी भला नहीं हो सकता। हाल ही में एक यात्रा के दौरान दो विद्वानों से मेरी भेंट हुई। उनमें से एक मसूरी अकादमी में नए आईएएस अधिकारियों को संबोधित कर लौट रहे थे। वे इस बात से व्यथित नजर आ रहे थे कि आईएएस अधिकारियों के चयन और प्रशिक्षण प्रक्रिया में अनेक खामियां हैं, जिनके कारण ऐसे लोग भी चयनित हो जाते हैं, जो भविष्य में आसानी से भ्रष्ट बन सकते हैं। ऐसी परिस्थितियों में जरूरी हो गया है कि भ्रष्टाचार को उजागर करने की हिम्मत दिखाने वाले लोगों को समाज पहचाने और प्रमुखता दे। ऐसे लोगों की सुरक्षा के लिए कई विकसित देशों में कानून हैं, किंतु हमारे देश में नहीं। अभी तक के जो अनुभव रहे हैं, उनसे यह लगता तो नहीं कि सरकारें ऐसा करने में सक्षम हैं। आज जहां समाज में नायकों की कमी हो गई है, वहां क्या भ्रष्टाचार को उजागर करने वालों को हम अपना नायक नहीं बना सकते? माना कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई आसान नहीं है, लेकिन क्या कभी कोई बड़ी चीज आसानी से हासिल हुई है?

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