Thursday, January 6, 2011

नया साल : यादें और आहटें





सच तो यह है कि बड़े दलों और करिश्माती नेताओं के प्रति रुझान भारतीय लोकतंत्र के गुणसूत्रों में पैवस्त है। जनता दल के तीनेक प्रयोगों ने दिखाया है कि बड़े नेताओं से विहीन दल छोटी अवधि के विकल्प होते हैं। हमारे बहुरंगी राज-समाज को लंबी दौड़ के लिए उत्तम नस्ल का घोड़ा चाहिए, जो सिर्फ स्थानीय ही नहीं, राष्ट्रीय अरमानों का वजन भी पूरे पांच सालों तक अपनी कड़ियल पीठ पर उठा सके।

अंग्रेजी की जानी-मानी लेखिका वर्जीनिया वुल्फ ने कभी लिखा था कि 1910 के आसपास मनुष्य स्वभाव बदल गया। उसके ठीक सौ साल बाद वर्ष 2010 के खत्म होते-होते जो नजारे दिख रहे हैं, उससे लगता है कि दुनिया का मिजाज एक बार फिर जा बदला है। अमेरिका से लेकर भारत और चीन तक हमने क्रांतिकारी आर्थिक और राजनीतिक बदलावों के साथ हर जगह नई सूचना और संचार तकनीक के मार्फत विचार, पूंजी या सूचना के लेन-देन के तमाम पुराने तरीकों को धराशायी होते देखा। भारत में भी सरकारी गोपनीयता, अभिव्यक्ति की आजादी और निजता बचाने से जुड़े तर्क और सेंसरशिप व कॉपीराइट जैसे मसले जनजीवन में टीवी, इंटरनेट, सर्च इंजिन और हैकिंग की धड़धड़ाती पैठ से अर्थहीन हो उठे हैं। सूचना की दुनिया का सागर आज मोबाइल और केबल टीवी के गागरों में सिमटता जा रहा है। दरभंगा की बेबी कुमारी या फिल्लौर की स्वीटी कौर, जो अब सीधे सेलफोन पर दिल्ली, बेंगलुरू, पटियाला या वैंकुवर, लंदन तक अपने प्रियजनों से बतियाने में सक्षम हैं, पोस्टकार्ड या अंतर्देशीय पर ‘चली जा, चली जा तू चिट्ठी वहां’ वाली भाषा में खत लिखने-लिखवाने की जरूरत महसूस नहीं करतीं। ऐसे समय में जब विपक्ष जेपीसी बिठाने की मांग बुलंद करके पूरा शीत सत्र ठप्प करवा दे, टीवी पर परम फजीहत के बाद मंत्री या मुख्यमंत्री बर्खास्त किए जाएं या खुफिया टेप मीडिया में लीक होने के बाद डीएमके तथा कांग्रेस की दोस्ती तड़कने लगे तो यह मसले भी फूस की आग की तरह पलक झपकते देश भर में चर्चित होने लगे हैं। इसे मीडिया की शरारत कहकर नई तकनीक की हंगामी रफ्तार, विज्ञापनों के असर से बढ़ रही युवा नागरिकों की नई मांगें और अरमान और उन्हें स्वर देने वाली एक नई भाषा को अब कानूनी डंडे से रोकना भी असंभव है।

राज-समाज के अलमबरदार भला मानें या बुरा, सत्ता में बने रहना हो तो अब उनको अपनी ताकत और कमजोरियों के साथ घट-घट व्यापी मीडिया की ताकत पर दोबारा तकलीफदेह ढंग से सोचना पड़ेगा। लोगों की ही तरह राजनीतिक दलों के भी जन्मना अपने कुछ आनुवंशिक गुणसूत्र (डीएनए) होते हैं, जो जनता के बीच उनकी पहली और स्थायी पहचान बनते हैं। 125 बरस पहले देश भर से आए 27 राज्यों के 72 प्रतिनिधि जब मुंबई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज एंड बोर्डिग हाउस में जमा होकर इंडियन नेशनल यूनियन नाम से उस पार्टी की नींव रख रहे थे, जो बाद में इंडियन नेशनल कांग्रेस के नाम से जानी गई तो प्रांतीयता या जाति-धर्म के अलगाववादी आग्रह कहीं नहीं थे। पार्टी के पहले अध्यक्ष (डब्ल्यू सी बनर्जी) ईसाई थे, दूसरे (दादा भाई नौरोजी) पारसी और तीसरे (बदरुद्दीन तैयबजी) मुसलमान। जब कांग्रेस का छठा सम्मेलन मद्रास में हुआ, तब तक सदस्य संख्या 702 हो चुकी थी, जिसमें से 156 मुसलमान थे। उस समय से अब तक कांग्रेस के वे समन्वयवादी गुणसूत्र भारतीय समाज के कुनबापरस्त समन्वयवादी मन को आकर्षित करने में बड़े मददगार साबित हुए हैं। अपने भले दिनों में कांग्रेस भारत की विविधता का पर्याय है और बंगाल या दक्षिण भारत को उसमें और चाहे जो भी कमियां दिखें, पार्टी की हिंदी पट्टी वाली जड़ें या उसकी उत्तर भारतीयता का विरोध वहां नहीं होता है।

इसके उलट भाजपा के गुणसूत्र और आडवाणी, मोदी या मोहन भागवत जैसे नेताओं के मुख से उसका प्रचार उसे आर्यावर्त के हिंदुओं की पार्टी की सार्वजनिक पहचान दिलाते रहे हैं। यह सही है कि उत्तर इंदिरा काल में दक्षिण में कांग्रेस लगातार विरल होती गई और भाजपा ने दक्षिण में अपना आधार बढ़ाया है पर इसके पीछे उत्तर मंडलीय राजनीति का शून्य अधिक था और भाजपा के विचारों के प्रति गहरा आदर कम। उसके सवर्ण मूलक, मुस्लिम रहित उत्तर भारतीय हिंदुत्व के पक्के गाहक दक्षिण में आज भी नहीं हैं और कर्नाटक में येदियुरप्पा का विकल्प खोजने में भाजपा को वैसे ही पसीने छूट रहे हैं, जैसे उत्तराखंड में नि:शंक का। उड़ीसा में नवीन पटनायक ने मौका पाकर उससे पल्ला झाड़ लिया और बिहार की जीत का सेहरा भी नीतीश के माथे बंधा, सुशील मोदी के नहीं। घर के भीतर भी उसे मुरली मनोहर जोशी की चिरौरी करनी पड़ी कि वे पीएसी के अध्यक्ष होते हुए भी उस संस्था को जांच के मामले में जेपीसी से कमतर घोषित कर दें। और उसे यह भी समझ नहीं आ रहा कि वह बिनायक सेन मामले में जेठमलानी को छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार को शर्मिदा करने से कैसे रोके?

युवा दृष्टि में भाजपा जब 2009 की तरह अपनी पृथकतावादी आनुवंशिकी के खिलाफ जाती है तो भी कटती है और जब उसे खुलकर मानती है (जैसे कि उत्तर प्रदेश या जम्मू में) तब भी। युवा जानते हैं कि सूचना सहभागिता के इस नए जमाने में जो महत्वपूर्ण पोशीदा राज संसद या रैलियों में कभी उजागर नहीं किए जाते, अक्सर भीतरी वजहों से प्राइम टाइम में लीक होने लगे हैं और फिर राष्ट्रीय स्तर के ओपिनियन पोल उन पर जनता की प्रतिक्रिया भी लगे हाथ बता देते हैं। और जब ऐसे अनेक लीक संप्रग ही नहीं, भाजपा के दामन में भी धब्बे तथा दलीय टूट उजागर कर रहे हैं, तब शंख बजाकर बड़बोली रैलियों में ‘हम अधिक साफ’ कहकर तलवारें लहराना आज के युवाओं के बीच सराहना नहीं, बल्कि एक प्रागैतिहासिक प्रतिरोध संस्कृति को लेकर खीझ या हंसी ही पैदा करता है। भाजपा और वामदल और सपा-बसपा वगैरह कह सकते हैं कि जेपीसी की मांग तो एक बहाना थी। असल लक्ष्य तो असेंबली चुनावों के करीब खड़े पांच राज्यों की जनता को यह जताना था कि कांग्रेस कैसे अपने भ्रष्टाचार से बोझिल सहयोगी पार्टियों को साथ रखने की क्षमता खोती जा रही है। और जब उसकी पुरानी ताकत चुक गई हो तो चंद छवियों के सहारे चुनी जाकर भी वह कौन सा भाड़ फोड़ लेगी? लेकिन अगर मक्खी निगलकर भी दलों के गठजोड़ को कायम रखना ही भारत का नया यथार्थ है तो फिर पूछा जा सकता है कि किसी भी पार्टी के लिए अखिल भारतीय लीडरों की छवि उभारने की जरूरत ही क्या रही?

सच तो यह है कि बड़े दलों और करिश्माती नेताओं के प्रति रुझान भारतीय लोकतंत्र के गुणसूत्रों में पैवस्त है। जनता दल के तीनेक प्रयोगों ने दिखाया है कि बड़े नेताओं से विहीन दल छोटी अवधि के विकल्प होते हैं। हमारे बहुरंगी राज-समाज को लंबी दौड़ के लिए उत्तम नस्ल का घोड़ा चाहिए, जो सिर्फ स्थानीय ही नहीं, राष्ट्रीय अरमानों का वजन भी पूरे पांच सालों तक अपनी कड़ियल पीठ पर उठा सके। चुनाव जीतने, राज-काज चलाने के अनशन, धरना, रैली या रथ यात्रा की ही तरह राज-काज के अड़ंगे इमर्जेसी, सेंसरशिप और अध्यादेशों से हटाने के पुराने टोटके जो हमारे दलों के फार्माकोपिया में हैं, 2011 में निर्थक बन गए हैं। अब तो जिस दल का शिखर नेतृत्व अपने मूल गुणसूत्रों की ताकत खोए बिना, समय की आहट पहचान कर नई भाषा में अपने तेवर और कलेवर सबसे पहले युवानुरूप बना लेगा, वही आने वाले दशकों में देश की असली आवाज बनकर उभरेगा।

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